'संवैधानिक नैतिकता' की जड़ संविधान में ही निहित है और इसके तात्त्विक फलकों पर आधारित है। प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों की सहायता से 'संवैधानिक नैतिकता' के सिद्धांत की व्याख्या कीजिये। (150 शब्द)
08 Apr, 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थासंवैधानिक नैतिकता का अर्थ है - लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का पालन करना। भारत में इस शब्द का पहली बार प्रयोग डॉ बी. आर. अंबेडकर ने अपनी संसदीय बहसों के दौरान किया। उनके दृष्टिकोण से इसका अर्थ विभिन्न लोगों के परस्पर विरोधी हितों के बीच एक प्रभावी समन्वयन और अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये संघर्षरत विभिन्न समूहों के बीच किसी टकराव के बिना इसे सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझाने के लिये प्रशासनिक सहयोग है।
समकालीन संदर्भ में, यह संविधान के मूलभूत तत्त्वों को संदर्भित करता है। इसका दायरा केवल संवैधानिक प्रावधानों का अक्षरशः पालन करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि संविधान के अंतिम उद्देश्य को सुनिश्चित करने तक विस्तृत है। इसका उद्देश्य है कि एक 'सामाजिक न्यायिक परिदृश्य का निर्माण', जो प्रत्येक नागरिक के पूर्ण व्यक्तित्व को विकसित व प्रकट करने का अवसर प्रदान करता है। यही संविधान का मूल लक्ष्य है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी उसके विभिन्न निर्णयों अंतर्गत ' संवैधानिक नैतिकता ' की व्याख्या एक परिपक्व लोकतांत्रिक व्यवस्था के संचालन हेतु संवैधानिक नैतिकता की अनिवार्यता को रेखांकित किया गया है । 1973 के केशवानंद भारती मामले में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक नैतिकता की मर्यादा को स्वीकार करते हुए ही संविधान में संशोधन करने की संसद की असीमित शक्ति पर 'आधारभूत संरचना' के रूप में एक सीमा आरोपित की थी । 2017 के नाज़ फांउडेशन वाद में दिये गए निर्णय में भी इस अवधारणा को मूर्त रूप में नियोजित किया गया , जिसमें इसका उपयोग भारतीय दंड संहिता की धारा-377 को निरस्त करने और समलैंगिकता को अपराधमुक्त घोषित करने हेतु किया गया। सबरीमाला मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक नैतिकता को भारत की सामाजिक नैतिकता के ऊपर प्राथमिकता देते हुए महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर लगा प्रतिबंध हटाया था । दिल्ली के उपराज्यपाल से संबंधित विवाद में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक नैतिकता की व्याख्या करते हुए इसे लोगों के लोकतंत्र में विश्वास का परिरक्षण करने की आवश्यकता को रेखांकित करने वाला विचार बताया था।
संवैधानिक नैतिकता एक ज़िम्मेदार नागरिक के मन में पैदा होने वाली भावना है। संवैधानिक नैतिकता को कायम रखना न केवल न्यायपालिका या राज्य का बल्कि व्यक्तियों का भी कर्त्तव्य है। संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से उस प्रकार के समाज का उल्लेख है, जिसे हम स्थापित करना चाहते हैं । यह केवल संवैधानिक नैतिकता के माध्यम से ही वास्तविकता बन सकता है ।