भारतीय समाज पारंपरिक सामाजिक मूल्यों में निरंतरता कैसे बनाए रखता है? इसमें होने वाले परिवर्तनों का विस्तृत विवरण दीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
- भारतीय समाज के विविध पारंपरिक मूल्यों का वर्णन करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- चर्चा कीजिये कि भारतीय समाज अपने पारंपरिक सामाजिक मूल्यों को बनाए रखने में कैसे सक्षम है?
- पारंपरिक मूल्यों के संबंध में हो रहे परिवर्तनों को उजागर कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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पुरातन परंपराओं एवं मान्यताओं को साथ लेकर आधुनिकता की ओर बढ़ता भारतीय समाज अपने आंचल में ‘विविधता’ को समेटे हुए है। विभिन्न धर्म, जाति एवं भाषा के लोग अपनी-अपनी भिन्न ‘संस्कृति’ का निर्वाह करते हुए परस्पर समन्वय के साथ यहाँ रहते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि जिन समाजों ने मतभेद के कारण संघर्ष किया है, वे इस तरह के प्रयास में बिखर गए।
भारतीय समाज ने पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था में निरंतरता बनाए रखी है:
- सहिष्णुता: भारत में सभी धर्मों, जातियों, समुदायों आदि के लिये सहिष्णुता और उदारवाद मौजूद है। भारतीय समाज ने विभिन्न धर्मों को स्वीकार कर उनका सम्मान किया और यह सुनिश्चित किया कि धर्मों का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व हो।
- सद्भाव की भावना: भारतीय दर्शन और संस्कृति समाज में सहज सद्भाव और व्यवस्था हासिल करने का प्रयास करते हैं।
- निरंतरता और स्थिरता: प्राचीन भारतीय संस्कृति जीवन का प्रकाश अभी भी चमक रहा है। कई आक्रमण हुए, कई शासक बदले, कई कानून पारित हुए लेकिन आज भी पारंपरिक संस्थाएँ, धर्म, महाकाव्य, साहित्य, दर्शन, परंपराएँ आदि जीवित हैं।
- अनुकूलनशीलता: अनुकूलनशीलता समय, स्थान और अवधि के अनुसार बदलने की प्रक्रिया है। भारतीय समाज ने बदलते समय के साथ खुद को समायोजित किया है।
- जाति व्यवस्था और पदानुक्रम: भारतीय समाज ने सामाजिक स्तरीकरण की प्रणाली विकसित की है, जिसने अतीत में बाहरी लोगों को समायोजित करने में मदद की, लेकिन साथ ही यह भेदभाव और पूर्वाग्रह का कारण भी रहा है।
- विविधता में एकता: अंतर्निहित मतभेदों के बावजूद भारतीय समाज में विविधता में एकता देखने को मिलती है जो आधुनिक भारत के संस्थापक सिद्धांतों और संवैधानिक आदर्शों में परिलक्षित होता है।
हाल के दिनों में भारतीय समाज ने कई विभाजनकारी मुद्दों में वृद्धि देखी है जैसे:
- जातिवाद: जाति-आधारित भेदभाव समाज को कृत्रिम समूहों में विभाजित करता है जो कभी-कभी हिंसा का कारण भी बनता है। कोई भी देश वास्तव में प्रगति तब तक नहीं कर सकता जब तक कि इस व्यवस्था को पूरी तरह से जड़ से उखाड़ न दिया जाए।
- सांप्रदायिकता: एक समुदाय का दूसरे के प्रति आक्रामक रवैया दो धार्मिक समुदायों के बीच तनाव और संघर्ष पैदा करता है। यह लोकतंत्र एवं हमारे देश की एकता के लिये एक बड़ी चुनौती है।
- एकल परिवार: भारत में एक या अधिकतम दो बच्चों वाले एकल परिवारों का एक नया चलन उभरा है। इसके कारण बच्चों को बुजुर्गों की उपस्थिति नहीं मिल पाती है जो छोटों के बीच नैतिक मूल्यों को स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
- लैंगिक भेदभाव: भारत को उन मानदंडों की बारीकी से जाँच करने की आवश्यकता है जो हिंसा और लिंग भेदभाव के व्यापक पैटर्न को जारी रखने की अनुमति देते हैं। कोई भी समाज जो महिलाओं को पुरुषों के बराबर महत्व नहीं देता, वह अपनी पूरी क्षमता तक नहीं पहुँच पाता है।
यद्यपि भारत मामूली स्तर पर बड़े और छोटे धार्मिक समुदायों के बीच अंतर का सामना कर रहा है। फिर भी भारत की अधिकांश आबादी यहाँ की विविधता का आनंद उठाते हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही है। इससे विभिन्न संस्कृतियों का समावेश होता है जिससे बंधुता की भावना को बल मिलता है। निजता या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से सृजनात्मकता और नवाचार को बढ़ावा मिलता है। यह किसी एक भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज आदि को प्रभावशाली होने से रोकती है और गंगा-जमुनी तहज़ीब को जीवंत बनाए रखती है।