राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न कालखंडों में किसानों की मांगों के प्रति कांग्रेस के दृष्टिकोण में भारी विविधता दृष्टिगत होती है। स्पष्ट कीजिये।
उत्तर :
उत्तर की रूपरेखा:
- किसानों के चिरकालीन शोषण की पृष्ठभूमि लिखें।
- किसानों की समस्याओं के प्रति कांग्रेस के विभिन्न कालखंडों में बदलते रवैये की चर्चा करें।
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भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के साथ ही किसानों का शोषण प्रारंभ हो गया था। बदलती आर्थिक, राजस्व एवं काश्तकारी नीतियों का सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव किसानों के ऊपर ही पड़ा। इन नीतियों के विरुद्ध तथा बेहतर कृषि-व्यवस्था के लिये किसान समय-समय पर आवाज उठाते रहे, परंतु 1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना के साथ इसमें एक नया मोड़ आया।
किसानों की मांगों के प्रति कांग्रेस के दृष्टिकोण को हम तीन काल-खंडों में विभाजित कर सकते हैं:
- 1885-1917 (कांग्रेस की स्थापना से लेकर चंपारण आंदोलन के पूर्व तक): इस कालखंड में कांग्रेस में अभिजात वर्गों का दबदबा था। नेतृत्व प्रायः किसानों की स्थिति और अपेक्षाओं से अनभिज्ञ था। इस काल खंड में असम, बंबई तथा पंजाब में राजस्व अदायगी के बहिष्कार का आंदोलन चलाया गया जो आंशिक रूप से सफल रहा। मुंडा विद्रोह के फलस्वरूप छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया तथा बेगार की प्रथा समाप्त की गई। कांग्रेस ने इस समय यद्यपि सीधे तौर पर इन आंदोलनों में भाग नहीं लिया परंतु किसानों की समस्याओं को वह सरकार के समक्ष उठाती रही।
- 1917-1936 (चंपारण सत्याग्रह से लेकर अखिल भारतीय किसान सभा के गठन के पूर्व): चंपारण में किसानों की समस्याओं के लिये सत्याग्रह का नेतृत्व कर गांधी जी ने किसानों के मुद्दे को पहली बार राष्ट्रीय पटल पर रेखांकित किया। असहयोग आंदोलन के समय तथा उसके बाद भी कई सफल किसान आंदोलन हुए, जिसमें कांग्रेस ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, इनमें से एका आंदोलन, बारदोली सत्याग्रह इत्यादि प्रमुख हैं। कांग्रेस ने किसानों की समस्याओं के प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए पहली बार 1936 में कांग्रेस अधिवेशन (फैजपुर) गाँव में आयोजित किया।
- 1936-1947 (अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक): 1930 के दशक में कांग्रेस में वामपंथी गुट का उदय होने लगा था वे किसानों एवं मज़दूरों के प्रति सहानुभूति रखते थे। 1937 से 1939 तक कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने किसानों के लिये कई सकारात्मक कदम उठाए। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने भूमि पुनर्वितरण के सिद्धांत को कृषकों एवं कामगारों के मध्य प्रचारित किया। 1938 ई. में नेशनल प्लानिंग कमेटी का गठन पंडित नेहरू की अध्यक्षता में किया गया, जिसमें किसानों के मुद्दों पर भी विचार किया। भारत छोड़ो आंदोलन के समय किसानों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। ब्रिटिश भारत के साथ-साथ देशी रियासतों में भी किसान आंदोलन हुए, जिन्हें कांग्रेस ने सैद्धांतिक समर्थन प्रदान किया।
समय की आवश्यकता एवं संगठन की व्यापकता के अनुसार कांग्रेस ने किसान समस्याओं के प्रति रवैये में बदलाव किया। जब कांग्रेस अभिजात वर्ग की पार्टी से जनमानस की पार्टी बन गई तो सामान्य जनों की समस्याओं पर कांग्रेस अधिक ध्यान देने लगी। कांग्रेस की विचारधारा में परिवर्तन के चलते भी किसान-मजदूर समस्याओं के प्रति झुकाव बढ़ा। नेहरू तथा सुभाष के नेतृत्व में कांग्रेस के युवा नेता वामपंथ के प्रति अधिक झुकाव रखते थे तथा किसानों एवं मज़दूरों की समस्याओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे।