भक्ति साहित्य की प्रकृति और भारतीय संस्कृति में इसके योगदान का मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
- भक्ति काल और उसके साहित्य को संक्षेप में समझाते हुए उत्तर प्रारंभ कीजिये।
- भक्ति साहित्य की प्रकृति/विशेषताओं का मूल्यांकन कीजिये।
- भारतीय संस्कृति में भक्ति साहित्य के योगदान की व्याख्या कीजिये।
- भक्ति काल के संपूर्ण प्रभाव के साथ संक्षेप में निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय
भक्ति आंदोलन का विकास सातवीं और बारहवीं शताब्दी के बीच तमिलनाडु में हुआ। मूल रूप से दक्षिण भारत में 9वीं शताब्दी में शंकराचार्य द्वारा शुरू किया गया यह आंदोलन भारत के सभी हिस्सों में 16 वीं शताब्दी तक विस्तृत हुआ और कबीर, नानक तथा श्री चैतन्य ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भक्ति साहित्य की प्रकृति
- अंतर-धार्मिक सद्भाव: भक्ति और सूफी आंदोलन ने एक-दूसरे का समर्थन किया तथा विभिन्न सूफी संतों के पाठ को सिखों के धार्मिक सिद्धांतों में जगह मिली। श्री गुरु ग्रंथ साहिब ने कबीर की शिक्षाओं को शामिल किया।
- स्थानीय भाषाओं को अपनाने के कारण भक्ति पंथ का प्रसार हुआ जिसे जनता आसानी से समझ सकती थी।
- समावेशी साहित्य: इसने संप्रदायवाद और जातिवाद को दूर करने का उपदेश दिया। पारंपरिक समाज के अपरंपरागत रीति-रिवाजों के खिलाफ भक्ति साहित्य में जातियों और बाहरी जातियों को शामिल करने का आह्वान किया गया।
- मुस्लिम कवियों दौलत काज़ी और सैयद अलाओल ने ऐसी कविताएँ लिखीं जो हिंदू धर्म और इस्लाम का सांस्कृतिक संश्लेषण थीं।
भक्ति साहित्य का योगदान
- स्थानीय भाषाओं का विकास: भक्ति साहित्य ने देश के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय भाषा के विकास को बढ़ावा दिया।
- पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'चंदायन' के लेखक मुल्ला दाऊद जैसे सूफी संतों, 'पद्मावत' के लेखक मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी रचनाएँ हिंदी में लिखीं और सूफी अवधारणाओं को एक ऐसे रूप में सामने रखा, जिसे आम आदमी आसानी से समझ सके।
- भाषाओं के पूर्वी समूह में, बांग्ला का प्रयोग चैतन्य और कवि चंडीदास द्वारा किया जाता था, जिन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम के विषय पर विस्तार से लिखा था।
- शंकरदेव भी भक्ति कवि थे, जिन्होंने 15वीं शताब्दी में ब्रह्मपुत्र घाटी में असमी भाषा को लोकप्रिय बनाया। उन्होंने अपने विचारों को फैलाने के लिये एक बिल्कुल नए माध्यम का इस्तेमाल किया।
- आज के महाराष्ट्र में एकनाथ और तुकाराम जैसे संतों के हाथों मराठी अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई।
- कबीर, नानक और तुलसीदास जैसे अन्य प्रमुख संतों ने अपने मनोरम छंदों और आध्यात्मिक व्याख्याओं के साथ क्षेत्रीय साहित्य एवं भाषा में काफी योगदान दिया।
- भक्ति और सूफीवाद के प्रभाव से एक नई सांस्कृतिक परंपरा का उदय।
- साथ ही सिख धर्म, कबीर पंथ आदि जैसे नए संप्रदायों का उदय हुआ।
- दार्शनिक विकास: वेदांत के बाद के विचारों की खोज माधवाचार्य ने अपने द्वैताद्वैत, रामानुजाचार्य ने अपने विशिष्ट अद्वैत आदि में की थी।
- एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में, इसने काव्य को राजाओं की स्तुतिगान से मुक्त किया और आध्यात्मिक विषयों को पेश किया। शैली की दृष्टि से, इसने विभिन्न भाषाओं में वचन (कन्नड़ में), साखियों, दोहों और अन्य रूपों जैसी सरल एवं सुलभ शैलियों की शुरुआत की तथा संस्कृत छंद के आधिपत्य को समाप्त कर दिया।
उनके द्वारा निर्मित किये गए भक्ति आंदोलन के विचार साहित्य के विशाल संग्रह के माध्यम से समाज के सांस्कृतिक लोकाचार में व्याप्त रहे। उनके विचारों की अनुरूपता ने न केवल हमें संभावित आंतरिक संघर्षों से बचाया बल्कि सहिष्णुता की भावना भी पैदा की। उन्होंने जनता से अपील करने तथा उन्हें अज्ञान से मुक्त करने के लिये संदेशों की रचना गीतों, कहावतों और कहानियों में की, जिससे अवधी, भोजपुरी, मैथिली और कई अन्य भाषाओं का विकास हुआ।