उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
- विधानपरिषदों और उनसे संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या के साथ पउत्तर की शुरुआत कीजिये।
- विधानपरिषदों के कामकाज और वर्तमान स्थिति पर चर्चा कीजिये।
- विधानपरिषदों को प्रभावी बनाने के लिये आगे की राह बताइये।
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भारत में एक द्विसदनीय प्रणाली है। राज्य स्तर पर, लोकसभा के समकक्ष विधानसभा तथा राज्य सभा के समकक्ष विधानपरिषद की स्थापना की गई है। संविधान के अनुच्छेद 169 के तहत, संसद कानून द्वारा किसी राज्य में विधानपरिषद का निर्माण कर सकती है या उसे समाप्त कर सकती है यदि उस राज्य की विधान सभा विशेष बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित करती है।
संवैधानिक प्रावधान:
अनुच्छेद 169 (गठन और उन्मूलन):
- संसद एक विधानपरिषद को (जहाँ यह पहले से मौजूद है) का विघटन कर सकती है और (जहाँ यह पहले से मौजूद नहीं है) इसका गठन कर सकती है। यदि संबंधित राज्य की विधानसभा इस संबंध में संकल्प पारित करे। इस तरह के किसी प्रस्ताव का राज्य विधानसभा द्वारा पूर्ण बहुमत से पारित होना आवश्यक होता है।
विशेष बहुमत का तात्पर्य:
- विधानसभा की कुल सदस्यता का बहुमत और
- विधानसभा में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों का बहुमत।
संरचना:
- संविधान के अनुच्छेद 171 के तहत, किसी राज्य की विधानपरिषद में राज्य विधानसभा की कुल संख्या के एक तिहाई से अधिक और 40 से कम सदस्य नहीं होंगे।
- राज्य सभा के समान विधानपरिषद एक सतत् सदन है, अर्थात् यह एक स्थायी निकाय है जिसका विघटन नहीं होता। विधानपरिषद के एक सदस्य (Member of Legislative Council- MLC) का कार्यकाल छह वर्ष का होता है, जिसमें एक तिहाई सदस्य हर दो वर्ष में सेवानिवृत्त होते हैं।
विधानपरिषद की आलोचना
- विधानसभा की तुलना में विधानपरिषद की स्थिति काफी कमज़ोर है। विधानपरिषद की शक्तिविहीन और प्रभावहीन भूमिका के कारण विशेषज्ञों द्वारा इस सदन की आलोचना की जाती रही है।
- आलोचक इसको द्वितीयक चैंबर, सफेद हाथी, खर्चीला सदन आदि की संज्ञा देते हैं। परिषद को ऐसे लोगों की शरणस्थली के रूप में देखा जाता है जो विधानसभा के समान निर्वाचन द्वारा चुनकर नहीं आ सकते। यह ऐसे व्यक्तियों की जिनकी सार्वजनिक स्थिति कमज़ोर होती है, लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं होते हैं तथा जनता द्वारा नकार दिये गए लोगों को सरकार में शामिल करने अर्थात् मुख्यमंत्री या मंत्री बनाने हेतु इस सदन का उपयोग किया जाता है।
- अधिकांश राज्यों में इसके सदस्य संख्या को बहुमत वाले दल के द्वारा ही भरा जाता है। इस तरह यह एक ‘डिट्टो चैंबर’ के तरह ही होता है।
- इसकी कल्पना पुनरीक्षणकारी सदन के रूप में की गई थी लेकिन शायद ही कोई विधानपरिषद् विधान सभा पर अंकुश लगाने में सफल हो पाती है। क्योंकि उसे सामान्य परिस्थिति में किसी विधेयक को तीन माह तक एवं विधेयक को दोबारा विधानसभा द्वारा पारित होने पर एक माह और रोकने का अधिकार है।
- इसे विधान सभा के चुनाव में हारे हुए सदस्यों हेतु ‘बैक डोर एन्ट्री’ के रूप में भी देखा जाता है। इसके अतिरिक्त यह राज्यों की विधायी प्रक्रिया में अनावश्यक देरी भी लगाता है जिससे विधानपरिषद् की ‘निलंबनकारी प्रकृति’ उजागर होती है।
विधानपरिषद की उपयोगिता
- यह विधानसभा द्वारा जल्दबाज़ी और असावधानी में बनाए गए गलत विधानों का पुनरीक्षण करती है।
- इस व्यवस्था द्वारा उन लोगों को भी विधायिका में सीधे अपना योगदान देने का मौका मिलता है जिन्हें किन्हीं कारणों से प्रत्यक्ष चुनावों से नहीं चुना जा सका हो।
- विधान मंडल का उच्च सदन विधानसभा के निर्णयों की समीक्षा करने और सत्तापक्ष के निरंकुशतापूर्ण निर्णयों पर अंकुश लगाने में सहायता करता है।
- गैर-विवादास्पद प्रकृति के बिल की शुरुआत परिषद अपने सदन से कर सकती हैं। यह निचले सदन के बोझ को कम करता है और इसे अधिक महत्त्व के उपायों पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करने में सक्षम बनाता है।
- उच्च सदन शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों को एक मंच प्रदान करता है, जो सरकार की जन-कल्याण योजनाओं के माध्यम से राज्य के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान देते हैं।
- इस व्यवस्था को नियंत्रण और संतुलन (Check and Balance) सिद्धांत के अनुसार किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिये आवश्यक माना जाता है।
सभी राज्य विधानसभाओं में एक उच्च सदन के लिए व्यापक बहस और सार्वजनिक व बौद्धिक राय की आवश्यकता है। विधानपरिषदों को एक ज़िम्मेदार निकाय होना चाहिये जो राज्यों के विकास के लिये नीतियों और कार्यक्रमों में भी अपना योगदान से सकें।