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प्रश्न :
किसी भी पद के विवेकाधिकारों के प्रयोग पर नैतिक दायित्वों का निर्धारण वस्तुनिष्ठता एवं निष्पक्षता के द्वारा किया जाता है, जबकि राज्यपाल के कार्यालय में निहित शक्तियाँ प्राय: विवादों में रहती हैं। विश्लेषित कीजिये। (250 शब्द)
11 Jan, 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- राज्यपाल के पद का परिचय दीजिये।
- राज्यपाल के कार्यों को बताते हुए उसके विवाद में रहने के लिये उत्तरदायी कारणों की पहचान करें।
- आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिये।
राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, जो कि राज्य की मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है। वह केंद्र एवं राज्य के मध्य एक सेतु की भाँति कार्य करता है। राज्यपाल की नियुक्ति, उसके पद संबंधी सेवा शर्तों एवं उसकी शक्तियों का विवरण भारतीय संविधान के अनुच्छेद-153 से अनुच्छेद 162 के तहत किया गया है।
वस्तुत: भारतीय संविधान में राज्यपाल को कई कार्यकारी एवं विवेकाधीन शक्तियाँ दी गई हैं जिनमें विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग राज्यपाल मंत्रीपरिषद की सलाह एवं सहायता के बिना स्वयं के विवेक पर करता है। संविधान में यह स्पष्ट लिखा है कि यदि ऐसा कोई प्रश्न उठता है कि कोई विवेकाधिकार से संबंधित मामला राज्यपाल के अधीन है या नहीं, इस संबंध में राज्यपाल का निर्णय अंतिम एवं वैध होता है। इन्हीं विवेकाधीन शक्तियों के प्रयोग के मुद्दे पर एक लंबे समय से राज्यपाल का पद विवादों के केंद्र में रहता है।
राज्यपाल की संवैधानिक विवेकाधीन शक्तियाँ निम्नवत् हैं-
- अनुच्छेद-163 के अनुसार अपने विवाधिकार वाले कार्यों के अलावा अपने अन्य कार्यों को करने के लिये राज्यपाल को मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद से सलाह लेनी होगी।
- अनुच्छेद 260 के तहत राज्यपाल राष्ट्रपति के विचारार्थ किसी विधेयक को आरक्षित कर सकता है।
- राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकता है।
- पड़ोसी केंद्रशासित प्रदेश में बतौर प्रशासक कार्य कर सकता है।
- राज्य के विधान परिषद एवं प्रशासनिक मामलों में मुख्यमंत्री से जानकारी प्राप्त कर सकता है।
- इसके अलावा राज्यपाल के पास कुछ परिस्थितिजन्य विवेकाधिकार की शक्तियाँ विद्यमान हैं जैसे-
- विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में कार्यकाल के दौरान अचानक मुख्यमंत्री का निधन हो जाने एवं उसके निश्चित उत्तराधिकारी न होने पर मुख्यमंत्री की नियुक्ति के मामले में।
- राज्य विधानसभा में विश्वास मत हासिल न करने पर मंत्रिपरिषद की बर्खास्तगी के मामले में।
मंत्रिपरिषद के अल्पमत में आने पर राज्य विधानसभा को विघटित करना।
उपर्युक्त विवेकाधीन शक्तियों के दुरुपयोग के भारत में कई मामले देखने को मिलते हैं जहाँ राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों पर प्रश्नचिह्न लगाए गए। जिनमें राजनीतिक विचारधारा के कारण पक्षपात करने, राष्ट्रपति शासन की दुर्भावनापूर्ण सिफारिश करना जैसे कई मामले हैं। इस मुद्दे पर समय-समय पर अनेक आयोगों एवं सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक सिफारिशें की हैं-
- 1971 में गठित राजमन्नार आयोग ने अनुच्छेद 356 एवं 357 के विलोपन की सिफारिश की थी।
- 1980 में गठित सरकारिया आयोग ने राज्यपाल के पद की स्वतंत्र संवैधानिक पद बताते हुए उस पर केंद्र सरकार की अधीनस्थता को खारिज किया।
- इसी प्रकार प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने राज्यपाल के पद पर मिली ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करने की सिफारिश की जिसका दल विशेष से कोई संबंध नहीं है।
- न्यायमूर्ति पी. चलैया आयोग ने सिफारिश की है कि अनुच्छेद 356 को कम-से-कम प्रयोग में लाना चाहिये इसका प्रयोग अनुच्छेद 257 तथा 355 के अधीन सभी उपायों के समाप्त हो जाने पर ही करना चाहिये।
इस प्रकार देखें तो भारत जैसे संवैधािनक लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र के सफल संचालन के लिये राज्यपाल की भूमिका अपरिहार्य है। उन्हें किसी भी विचारधारा या केंद्र सरकार के प्रभाव से स्वयं को दूर रखना चाहिये तथा लोकतंत्र के सुचारु संचालन में वस्तुनिष्ठा एवं निष्पक्षता जैसे मूल्यों को अपनाए जाने की आवश्यकता है।
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