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प्रश्न :
प्रश्न. सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये ऊर्जा सुरक्षा महत्त्वपूर्ण है। ऊर्जा सुरक्षा प्राप्त करने में आने वाली चुनौतियों की चर्चा कीजिये और इसे सुनिश्चित करने के उपाय सुझाइये।
29 Dec, 2021 सामान्य अध्ययन पेपर 3 पर्यावरणउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये ऊर्जा सुरक्षा के महत्त्व को लिखने से उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- ऊर्जा सुरक्षा को प्राप्त करने में उपस्थित चुनौतियों की चर्चा कीजिये।
- ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये कुछ उपाय भी सुझाइये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
ऊर्जा सुरक्षा का महत्त्व
- ऊर्जा सुरक्षा का अर्थ है उचित मूल्य पर आवश्यक मात्रा और गुणवत्ता के साथ ऊर्जा की विश्वसनीय आपूर्ति और ऊर्जा संसाधनों एवं ईंधन तक पहुँच। ऊर्जा सुरक्षा कई कारकों पर निर्भर करती है।
- ऊर्जा सामग्री आयात करने वाले देशों के लिये ऊर्जा सुरक्षा की परिभाषा में मुख्य रूप से तीन पहलू शामिल हैं:
- ऊर्जा संसाधनों की पर्याप्त मात्रा तक पहुँच,
- उपयुक्त प्रारूप,
- पर्याप्त मूल्य।
- भारत अपनी तेल आवश्यकताओं के 80% का आयात करता है और समग्र विश्व में तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता है।
- भारत की ऊर्जा खपत अगले 25 वर्षों तक प्रत्येक वर्ष 4.5% की दर से बढ़ने की उम्मीद है।
- हाल में, कच्चे तेल के उच्च अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के कारण तेल आयात पर उच्च लागत से चालू खाता घाटे (CAD) में वृद्धि हुई है, जिससे भारत में दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता के बारे में चिंता उत्पन्न हुई और इस परिदृश्य ने ऊर्जा सुरक्षा के महत्त्व को रेखांकित किया।
भारत में ऊर्जा सुरक्षा की चुनौतियाँ
- नीतिगत चुनौतियाँ: घरेलू हाइड्रोकार्बन अन्वेषण में अंतर्राष्ट्रीय निवेश आकर्षित करने में विफलता।
- भारत में कोयला खनन नियामक और पर्यावरण मंज़ूरी के कारण देरी की समस्या से ग्रस्त है।
- नीति आयोग ने एक ऊर्जा रणनीति तैयार की है, लेकिन इसके पास कोई कार्यकारी अधिकार नहीं है। वर्ष 2006 में पूर्ववर्ती योजना आयोग द्वारा प्रकाशित "एकीकृत ऊर्जा नीति" को भी इसी स्थिति का सामना करना पड़ा था।
- तब, योजना आयोग के दस्तावेज़ को मंत्रिमंडल ने समर्थन तो प्रदान किया था, लेकिन उसकी अधिकांश अनुशंसाओं की अनदेखी कर दी गई थी।
- अभिगम्यता या पहुँच संबंधी चुनौती: भारत में घरेलू क्षेत्र, ऊर्जा के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक है। यह कुल प्राथमिक ऊर्जा उपयोग के लगभग 45% के लिये उत्तरदायी है। ग्रामीण क्षेत्रों में खाना पकाने के लिये कुल प्राथमिक ईंधन खपत का 90% बायोमास से प्राप्त होता है। इसका ग्रामीण लोगों पर गंभीर स्वास्थ्य प्रभाव पड़ता है।
- अवसंरचना और कौशल संबंधी चुनौतियाँ: परंपरागत और गैर-परंपरागत ऊर्जा के विकास के लिये कुशल श्रमबल का अभाव है और आधारभूत संरचनाएँ पर्याप्त गुणवत्तायुक्त नहीं हैं।
- भारत में ऊर्जा को सुलभ बनाने के लिये परिवहन अवसंरचना की कमी है। उदाहरण के लिये, भारत में पाइपलाइन अवसंरचना की कमी है, जो देश में गैस की कुल आपूर्ति को बढ़ावा देने के लिये एक उपयोगी माध्यम हो सकता था। भारतीय ऊर्जा मिश्रण में गैस एक प्रमुख भूमिका निभाएगी, क्योंकि इसका उपयोग कई क्षेत्रों में प्रभावी ढंग से किया जा सकता है।
- आर्थिक चुनौतियाँ: कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस भारत में प्राथमिक ऊर्जा के सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इन हाइड्रोकार्बन की अपर्याप्त घरेलू आपूर्ति, देश को अपना आयात बिल बढ़ाने के लिये विवश कर रही है।
- बढ़ती ईंधन सब्सिडी अर्थव्यवस्था के लिये कठिन परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है।
- बाह्य चुनौतियाँ: भारत की कमज़ोर ऊर्जा सुरक्षा आयातित तेल पर बढ़ती निर्भरता, नियामक अनिश्चितता, अंतर्राष्ट्रीय एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों और अपारदर्शी प्राकृतिक गैस मूल्य निर्धारण नीतियों के कारण गंभीर दबाव में है।
- दक्षिण-एशिया में अपनी कठिन भौगोलिक स्थिति के मद्देनज़र भारत को अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये एक रणनीतिक चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
आगे की राह
ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं—
- विधायी कार्रवाई: सरकार को उत्तरदायित्व और सुरक्षा पर बल रखते हुए एक अधिनियम पारित करना चाहिये जिसे "ऊर्जा उत्तरदायित्व और सुरक्षा अधिनियम" का नाम दिया जा सकता है।
- इस अधिनियम द्वारा ऊर्जा को संवैधानिक मान्यता प्रदान कर ऊर्जा के महत्त्व को बढ़ावा देना चाहिये। इसे नागरिकों को सुरक्षित, सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध कराने के भारत के उत्तरदायित्व को विधिक दायरे में शामिल कर देना चाहिये, और इस संदर्भ में इसे ऊर्जा स्वतंत्रता, ऊर्जा सुरक्षा, ऊर्जा दक्षता और "हरित" ऊर्जा की उपलब्धि की दिशा में प्रगति की निगरानी के लिये मापन योग्य मीट्रिक्स तैयार करना चाहिये।
- संक्षेप में, यह अधिनियम एक एकीकृत ऊर्जा नीति के निर्माण और निष्पादन के लिये संवैधानिक अधिदेश और ढाँचा प्रदान करेगा।
- संस्थागत कार्रवाई: सरकार को ऊर्जा संबंधी निर्णय-निर्माण की मौजूदा संरचना को नया स्वरूप प्रदान करना चाहिये। इस संदर्भ में, पेट्रोलियम, कोयला, नवीन एवं नवीकरणीय और बिजली मंत्रालयों के मौजूदा ‘वर्टिकल साइलो’ (परस्पर संवाद या अंतर्क्रिया की अक्रियता) की निगरानी के लिये एक सर्वव्यापक ऊर्जा मंत्रालय के निर्माण को प्राथमिकता दी जा सकती है।
- ऐसा एक मंत्रालय 1980 के दशक के आरंभ में मौजूद था (यद्यपि इसमें पेट्रोलियम विषय शामिल नहीं था)। इस नए मंत्रालय के प्रभारी मंत्री को रक्षा, वित्त, गृह और विदेश मामलों के मंत्रियों के समान महत्त्व दिया जाना उपयुक्त होगा।
- प्रधानमंत्री कार्यालय के अंदर एक कार्यकारी विभाग की स्थापना भी की जा सकती है। इसे "ऊर्जा संसाधन, सुरक्षा और संवहनीयता विभाग" के रूप में संदर्भित किया जा सकता है।
- वित्तीय कार्रवाई: वित्त तक आसान पहुँच सुनिश्चित किया जाना महत्त्वपूर्ण है और सरकार को स्वच्छ ऊर्जा अनुसंधान एवं विकास तथा नवाचार को बढ़ावा देना चाहिये।
- जन जागरूकता का प्रसार: इसके तहत मौजूदा और उभरते ऊर्जा-संबंधी मुद्दों, विशेष रूप से ग्लोबल वार्मिंग के बारे में जन जागरूकता के प्रसार के लिये संचार रणनीति का समन्वय और कार्यान्वयन करना शामिल होगा।
- इस विभाग के पास अन्य ऊर्जा विभागों की तुलना में कम अधिकार होगा, लेकिन चूँकि यह प्रधानमंत्री कार्यालय के अंतर्गत स्थापित होगा, वास्तविक रूप से यह सबसे शक्तिशाली कार्यकारी निकाय होगा जो परम उत्तरदायित्व के साथ "हरित संक्रमण" का संचालन करेगा।
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