सामाजिक परिवर्तन लाने में कानून की अपनी सीमा है। इस संदर्भ में गंभीर रूप से महिलाओं को सशक्त बनाने और उनके आसपास पितृसत्ता की पकड़ को कमज़ोर करने के लिये उठाए गए कदमों की प्रभावकारिता का मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द )
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
- कानून द्वारा सामाजिक परिवर्तन का उदाहरण सहित वर्णन कीजिये।
- पितृसत्तात्मक प्रथाओं को समाप्त करने में कानूनी प्रयासों के उदाहरण प्रस्तुत कीजिये।
- पितृसत्तात्मक रीति-रिवाज़ों के उन्मूलन में कानून की असफलता का परिचय देते हुए, उचित निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय: हमेशा से कानून सामाजिक परिवर्तनों व सुधारों को सुनिश्चित करने का मुख्य साधन रहा है। अभी तक देश में महिलाओं के लिये अनेक कानून बनाएँ गए हैं जो इन्हें आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में सशक्त बनाते हैं। साथ ही पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों के समान अवसर व अधिकार भी सुनिश्चित करते हैं।
संरचना:
- संविधान द्वारा प्रदत्त-सामाजिक व राजनीतिक अधिकार: संविधान में महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष लाने के लिये अनेक प्रावधान शामिल किये गए हैं। मूलअधिकारों के रूप में विधि के समक्ष समानता (अनुच्छेद-14), लैंगिक भेदभाव का प्रतिषेध (अनुच्छेद-15), रोज़गार में भेदभाव का अभाव (अनुच्छेद-16) आदि का प्रावधान किया गया है। नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल वेतन (अनुच्छेद-39क) की समानता आदि के माध्यम से महिलाओं को पुरुषों के समक्ष समानता प्रदान की गई है।
- 73वाँ व 74वाँ संविधान संशोधन पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत का आरक्षण का प्रावधान करता है जो राजनीति में पुरुषों के एकाधिकार को समाप्त कर महिलाओं की स्थानीय राजनीति में भागीदारी सुनिश्चित करता है।
- आर्थिक अधिकार: महिलाओं को आर्थिक रूप से सबल करने के लिये मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, जैसे कानून संसद द्वारा बनाए गए हैं।
- संविधान का अनुच्छेद-300(A) महिलाओं के लिये संपत्ति पर अधिकार का उपबंध करता है।
- मनरेगा में 33 प्रतिशत रोज़गार महिलाओं के लिये आरक्षित है।
- सामाजिक न्याय: संविधान का अनुच्छेद 51(A) महिलाओं के सम्मान के विरूद्ध प्रथाओं को त्यागने को मूल कर्त्तव्यों में शामिल करता है।
- जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 सती प्रथा को बढ़ावा देने के आरोपी व्यक्ति को चुनाव लड़ने से निषेध करता है।
- सती प्रथा (निवारण) अधिनियम, 1987; दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961; घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 जैसे कानून महिलाओं को हिंसा व अपराध से संरक्षण प्रदान करते हैं।
- आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों, एसिड अटैक आदि मामलों में कठोर सज़ा का प्रावधान करता है।
सामाजिक परिवर्तन हेतु कानून की सीमाएँ
- महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने व उनके सशक्तीकरण के लिये अनेक कानून के पश्चात् भी विश्व आर्थिक मंच के ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट (जिसके मानक हैं- शैक्षिक उपलब्धियाँ, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता, आर्थिक अवसर तथा राजनैतिक सशक्तीकरण आदि) में विश्व के 149 देशों में भारत की रैंकिंग है 108 जो कि देश में महिलाओं की स्थिति को दर्शाता है।
- भारतीय संसद व विधानसभाओं में अभी भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त बना हुआ है। लोकसभा चुनाव-2019 में महिला सांसदों की संख्या मात्र 14.58 प्रतिशत है जो महिलाओं की आधी जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है। संसद में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत आरक्षण संबंधी बिल अभी भी पारित नहीं हुआ है।
- विश्व श्रम संगठन के अनुसार महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 34 प्रतिशत कम वेतन दिया जा रहा है जो समान वेतन अधिनियम की विफलता को इंगित करता है।
- हाल ही में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर उच्चतम न्यायालय के आदेश का जिस प्रकार रूढ़िवादी लोगों ने विरोध किया वह अभी भी भारतीय समाज में पुरुष प्रधान सोच की उपस्थिति को दर्शाता है।
निष्कर्ष:
यद्यपि महिलाओं की सुरक्षा, आर्थिक और समाजिक उत्थान आदि के लिये अनेक कानून उपलब्ध हैं परंतु उनका उचित क्रियान्वयन किया जाना आवश्यक है।