'जर्मनी की समस्या का समाधान बौद्धिक भाषणों से नहीं, आदर्शवाद से नहीं, बहुमत के निर्णय से नहीं, वरन् प्रशा के नेतृत्व में रक्त और तलवार की नीति से होगा।' टिप्पणी करें।
03 Jul, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहास
हल करने का दृष्टिकोणः
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बिस्मार्क 1832 में ऑस्ट्रिया का चान्सलर बना और अपनी कूटनीति, सूझबूझ रक्त एवं लौह की नीति के द्वारा जर्मनी का एकीकरण पूर्ण किया।
1871 ई. के बाद बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी की प्रधानता को बनाए रखना था। जर्मनी को संगठित व शक्तिशाली बनाने के उपरांत बिस्मार्क ने ‘युद्ध आधारित विदेश नीति’ त्यागकर और कूटनीतिज्ञ रणनीतियों को अपनाकर यूरोप में शांति स्थापित करने काप्रयत्न किया।
बिस्मार्क की विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्त थे- व्यावहारिक अवसरवादी कूटनीति का प्रयोग कर जर्मन विरोधी शक्तियों को अलग-थलग रखना एवं फ्रांस को मित्र विहीन बनाना, उदारवाद का विरोध एवं सैन्यवाद में आस्था रखना।
बिस्मार्क की कूटनीतिज्ञ रणनीतियों को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-
आस्ट्रो-जर्मन द्विगुटः यह बिस्मार्क की कूटनीति की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस संधि के अंतर्गत युद्ध अवस्था में एक-दूसरे की सहायता का संकल्प लिया गया।
पुनराश्वासन संधिः 1883 ई. में जर्मनी और ऑस्ट्रिया ने रूमानिया के साथ संधि की जो रूस के विरुद्ध थी। अतः रूस, फ्राँस से संधि न करे, इस कारण बिस्मार्क ने रूस से 1887 में पुनराश्वासन संधि की।
तीन सम्राटों का संघः विदेशनीति के क्षेत्र में सन्धि प्रणाली के तहत बिस्मार्क का पहला कदम था। बिस्मार्क ने जर्मनी, ऑस्ट्रिया व रूस को मिलाकर तीन सम्राटों के संघ का गठन किया जो कि कुछ समय बाद बाल्कन की समस्या के परिणामस्वरूप विघटित हो गया।
त्रिगुट संगठन का निर्माणः तत्पश्चात् बिस्मार्क ने इटली, जर्मनी व ऑस्ट्रिया का त्रिगुट संगठन बनाया। उल्लेखनीय है कि इटली व ऑस्ट्रिया शत्रु देश थे।
ब्रिटेन के प्रति नीतिः ब्रिटेन की नाविक शक्ति की श्रेष्ठता के कारण बिस्मार्क ने उसे चुनौती नहीं दी। इस प्रकार उसने ब्रिटेन को यूरोपीय व्यवस्था से दूर रखा।
रूस के साथ पुनराश्वासन संधि के उपरांत बिस्मार्क को 1890 में त्यागपत्र देना पड़ा। जर्मनी का एकीकरण पूरा होने के उपरांत उसने नए साम्राज्य की सुरक्षा नीति के अंतर्गत एक सशक्त विदेश नीति का अवलंबन किया। बिस्मार्क ने नई संधियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक सर्वथा नवीन पद्धति का सूत्रपात किया और इस व्यवस्था को सफलतापूर्वक लागू किया।
इतिहासकारों का मानना है कि बिस्मार्क की समस्त संधियाँ अंतर्विरोधों से परिपूर्ण थीं जो आगे चलकर विभिन्न युद्धों का कारण भी बनी।
ऑस्ट्रिया, इटली व रूस के हित कई मामलों में टकराते थे तथा इनका समन्वय एक जटिल कार्य था जो बिस्मार्क जैसा कूटनीतिज्ञ ही कर सकता था। उसके पदत्याग के 4 वर्ष के भीतर संपूर्ण पद्धति का अंत हो गया। बिस्मार्क की पद्धति में इंग्लैंड सम्मिलित नहीं था जो एक दोष था। अपने कार्यकाल के दौरान बिस्मार्क ने फ्राँस को यूरोपीय राजनीति से अलग-थलग व मित्रविहीन तो रखा परंतु उसे न तो निर्बल बना सका और न ही उसके असंतोषों को दूर कर सका। यही कारण था कि बिस्मार्क की नीतियाँ लघुकालीन थीं।
क्योंकि बिस्मार्क के उपरांत जर्मनी में ऐसा कोई कूटनीतिज्ञ नहीं था जो गुप्त संधियों के सूक्ष्म संतुलन को बनाए रख सके अतः बिस्मार्क के उपरांत फ्राँस को यूरोपीय राजनीति में लौटने का अवसर प्राप्त हो गया जिसकी परिणति प्रथम विश्व युद्ध के रूप में हुई। साथ ही अंतर्विरोधों पर टिकी इस व्यवस्था को अत्यंत सफल कहना सर्वथा उचित न होगा।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि बिस्मार्क के चांसलर बने रहने तक तो उसकी नीतियाँ सफल थीं किंतु यह सफलता दीर्घकालिक नहीं थी।