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प्रश्न :
मौर्योत्तर शैली ने भाव, भावना एवं शारीरिक सौंदर्य सभी पक्षों के प्रदर्शन पर बल दिया जिसके कारण कला धार्मिक विचार और शारीरिक सुख दोनों की अभिव्यक्ति का साधन बन गई। विवेचना करें।
01 Jul, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भूमिका
- मौर्योत्तर कला के विभिन्न पक्ष तथा समन्वय
- निष्कर्ष
मौर्यकाल में कला के विकास में राज्य अहम भूमिका निभाता था परंतु मौर्योत्तर काल की कला को विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा संरक्षण तथा प्रोत्साहन दिया गया।
मौर्योत्तर काल में नए विचारों के साथ-साथ कला के नए स्वरूप अस्तित्व में आए और इसी परिदृश्य में विभिन्न सांस्कृतिक तत्त्वों के प्रचलन की शुरुआत हुई जिसकी परिणति भारत में मिली-जुली संस्कृति के विकास के रूप में हुई।
मौर्योत्तरकालीन कला तथा संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में भारतीय समाज का व्यवसाय प्रधान होना था। व्यवसाय के क्षेत्र में दक्षिण भारत की स्थिति उत्तर भारत की तुलना में बेहतर थी।
बाद में उत्तर भारत के आर्थिक ढाँचे में भी परिवर्तन हुए, जिसके कारण मौर्योत्तरयुगीन कला तथा संस्कृति में व्यापक परिवर्तन देखा गया।इस काल में कला का आधार मुख्यत: बौद्ध धर्म ही रहा। धनी व्यापारियों की विभिन्न श्रेणियों तथा शासकों द्वारा इसे बहुत प्रोत्साहन दिया गया।
पर्वतों में खोदी गई गुफाएँ मंदिरों तथा भिक्षुओं के निवास स्थान के रूप में प्रयुक्त होती थी। इसी प्रकार जैन धर्म के अनुयायियों ने मथुरा में मूर्तिकला की एक शैली को प्रश्रय दिया जहाँ शिल्पियों ने महावीर की एक मूर्ति बनाई।
जहाँ तक ब्राह्मण धर्म का प्रश्न है, उसके भी अवशेष कुछ कम नहीं हैं। मथुरा, लखनऊ, वाराणसी के अनेक संग्रहालयों में इस काल के विष्णु, शिव, स्कंद-कार्तिकेय के निरुपणों के उदाहरण प्राप्त होते हैं।
मौर्योत्तरयुगीन कला में स्तूपों, चैत्यों तथा विहारों के निर्माण को लोकप्रियता मिली। बुद्ध की प्रतिमाओं के चेहरे के चारों ओर दिव्य प्रकाश को चक्र द्वारा प्रदर्शित करने का प्रयत्न मथुरा शैली के अंतर्गत किया गया।
निष्कर्षतः मौर्य तथा मौर्योत्तर काल में कला ने भाव, भावना एवं शारीरिक सौंदर्य सभी को प्रदर्शित करना शुरू किया जिसके कारण कला धार्मिक विचार और शारीरिक सुख दोनों की अभिव्यक्ति का साधन बन गई।
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