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प्रश्न :
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वराज दल कोई अमूलचूल परिवर्तन करने में असफल रहा किंतु इसने राजनीतिक शून्यता को भरा तथा ब्रिटिश विरोधी भावना को जीवित रखा। विवेचना करें।
25 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
- भूमिका
- स्वराज दल का परिचय
- सफलता के बिंदु
- राजनीति शून्यता को कैसे भरा
- विफलता या सीमाएं
- निष्कर्ष
गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन समाप्त कर देने के कारण राष्ट्रीय आंदोलन में शून्यता आ गई थी। स्वतंत्रता संघर्ष के लिये गांधीवादी तरीके से लोगों का विश्वास अब उठने लगा था। भारत सरकार अधिनियम 1919 के तहत 1923 ई. में चुनाव होने थे। इस मुद्दे पर कॉन्ग्रेस दो भागों में बँट गई, एक भाग काउंसिल में प्रवेश के पक्ष में था तथा दूसरा इसके विरुद्ध।
अंततः 1923 ई. में चुनावों में भाग लेने के लिये स्वराज दल की स्थापना की गई चितरंजन दास इसके अध्यक्ष बने तथा मोतीलाल नेहरू इसके सचिव। स्वराज दल को केंद्रीय विधानसभा में 48 सीटें प्राप्त हुईं तथा मध्य भारत में उसका बहुमत रहा।
सफलता के बिंदु-
- स्वराजवादियों ने राष्ट्रीय एजेंडे का पालन किया तथा अपनी तरह के समूहों के साथ मिलकर राष्ट्र विरोधी कानूनों के पारित होने में अवरोध उत्पन्न किया।
- उन्होंने प्रांतीय स्तर पर द्वैध शासन के खोखलेपन को उजागर किया क्योंकि वास्तविक शक्तियाँ अब भी गवर्नर तथा गवर्नर जनरल के पास थीं।
- स्वराज दल द्वारा पारित एक प्रस्ताव के फलस्वरूप 1924 ई. में द्वैध शासन की कार्य-पद्धति की समीक्षा हेतु मड्डीमैन कमेटी का गठन किया गया।
- इसने व्यापक जन आंदोलन की अनुपस्थिति में भी ब्रिटिश विरोधी भावना को जीवित रखा।
- 1928 ई. में पब्लिक सेफ्टी बिल पारित नहीं होने दिया गया।
विट्ठलभाई पटेल केंद्रीय विधानसभा के सभापति नियुक्त हुए तथा चुनावों में भाग लेने और काउंसिल में प्रवेश के फलस्वरूप प्राप्त अनुभवों से भारत में राजनीतिक परिपक्वता विकसित हुई एवं भारतीय और अधिक प्रभावशाली ढंग से संघर्ष करने के लिये प्रेरित हुए।
अपरिवर्तनवादी समूह के प्रमुख नेता वल्लभभाई पटेल तथा राजेन्द्र प्रसाद थे। उनका तर्क था कि काउंसिल में प्रवेश का उद्देश्य भले ही सकारात्मक हो परंतु एक बार जब सत्ता-सुख भोग लेंगे तो स्वतंत्रता-संघर्ष के उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता कम हो जाएगी। साथ ही उनका यह भी मानना था कि चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने से हम भारत सरकार अधिनियम 1919 को कमियों के साथ ही स्वीकार कर लेंगे तथा इसके प्रति विरोध कमज़ोर पड़ जाएगा। परंतु वे 1907 ई- की तरह का विभाजन भी नहीं चाहते थे अतः कॉन्ग्रेस के भीतर ही एक गुट के रूप में उन्हें चुनाव लड़ने की आज्ञा दे दी गई। यद्यपि स्वराजवादियों ने अपनी राजनीतिक यात्रा बड़े ही उत्साह के साथ शुरू की थी परंतु 1926 तक उनका उत्साह ठंडा पड़ गया। यह उनकी अनुभवहीनता तथा गलतियों का परिणाम था।
स्वराजवादियों की सीमाएं-
- स्वराजवादियों की कुछ गतिविधियों से ऐसा प्रतीत होता था कि वे सरकार के साथ सहयोगपूर्ण रवैया अपना रहे हैं जैसे विट्ठल भाई पटेल द्वारा केंद्रीय विधानसभा के सभापति का पद स्वीकार करना तथा मोतीलाल नेहरू का स्कीन कमेटी का सदस्य बनना इत्यादि। इस कारण उनकी विश्वसनीयता घटी तथा जनाधार का भी कम हुआ।
- स्वराजवादियों के आपसी मतभेद भी सतह पर आने लग गए थे तथा उनमें सत्ता-सुख की लालसा बलवती होती जा रही थी।
- 1925 ई. में चितरंजन दास की मृत्यु के पश्चात् स्वराज दल को बड़ा झटका लगाए क्योंकि वे स्वराज दल के सबसे लोकप्रिय नेता थे।
1927 ई. में साइमन कमीशन की नियुक्ति के फलस्वरूप स्वराज दल की प्रासंगिकता समाप्त हो गई तथा स्वराजवादी पुनः कॉन्ग्रेस की मुख्यधारा में शामिल हो गए।
निष्कर्षतः भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वराज दल कोई अमूलचूल परिवर्तन करने में तो असफल रहा परंतु इसने असहयोग के बाद उपजी राजनीतिक शून्यता को भरा तथा ब्रिटिश विरोधी भावना को जीवित रखा।
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