कबीर के काव्य में विद्यमान भाव सौंदर्य और कलात्मक सौष्ठव पर प्रकाश डालिये।
22 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यकबीर को मध्य युग के क्रांतिकारी समाज सुधारक के रूप में स्वीकृति आसानी से मिल जाती है परंतु एक महान कृतिकार अथवा एक श्रेष्ठ कवि के रूप में उनकी महानता को स्वीकार करना विद्वानों के मध्य जटिल चुनौती के रूप में उपस्थित हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ में ज्ञानमार्गी शाखा की रचनाओं को बहुत महत्व नहीं दिया लेकिन फिर भी कबीर की रचनाओं को इस धारा में शामिल किया, परंतु आचार्य शुक्ल इन रचनाओं को भक्तिकाल के अन्य कवियों जैसे तुलसी, सूर और जायसी के समकक्ष महत्त्व नहीं प्रदान कर सके।
कबीर की रचनाओं में समाज के सभी आयामों को शामिल करते हुए एक संश्लिष्ट व्यक्तित्व के रूप में कबीर का वर्णन आचार्य शुक्ल इस प्रकार करते हैं कि- उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावनात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी वाणी में ये सब अवयव अवश्य स्पष्ट लक्षित होते हैं।
यद्यपि कबीर पढ़े-लिखे ना थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी जिससे उनके मुँह से बड़ी चुटीली और व्यंगपूर्ण बातें निकलती थी तथा उनकी उक्तियों में विरोध और असंभव का चमत्कार लोगों को बहुत आकर्षित करता था। इस प्रकार आचार्य शुक्ल उपरोक्त मानकों यथा उलटबासियों के चमत्कार, गूढ़ ज्ञान तथा सूफियों जैसे ईश्वर प्रेम के कारण उनकी प्रतिभा का लोहा मानते थे वरना आचार्य शुक्ल कबीर को एक महान कृतिकार मानने के पक्ष में नहीं थे।
सांस्कृतिक परंपरा के निर्माण में ऊँची जातियों के कुलीनतावादी दृष्टिकोण अर्थात वैदिक-पौराणिक संस्कृति के आग्रहों से कबीर तथा अन्य निर्गुण संत के काव्य के मर्म को नहीं समझा जा सकता है। इस मर्म को समझने के क्रम में रविंद्रनाथ ठाकुर द्वारा किये गए कबीर काव्य के अंग्रेजी भावानुवाद, क्षितिमोहन सेन की कबीर तथा संत साहित्य पर लिखी टिप्पणी (जिस पर बंगाल नवजागरण के प्रभाव पड़ा) का विकास महत्वपूर्ण रहा जिससे कबीर विरोधी धारणाओं का उन्मूलन किया गया। इन प्रयासों के क्रम में हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखी गई पुस्तक कबीर अत्यंत महत्वपूर्ण रही जिसने कबीर विरोधी धारणाओं को स्थापित किए गए नए मानकों के आधार पर महत्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी माना।
कबीर की रचनाएँ किसी स्थापित मान्यता का खंडन करने के उद्देश्य से प्रश्न पूछने की शैली में रची गई हैं। ये पद तेवर और मिजाज में अक्खड़पन का परिचय देती हैं। इन रचनाओं के मर्म में एक संघर्षशील चिंतक की प्रखरता और व्यंगपूर्ण वक्रोक्ति की तल्खी का बड़ा विचित्र सम्मिश्रण है। इन रचनाओं में कहीं पंडितों को संबोधित करते हैं, कहीं का जी को और कहीं मुल्ले को।
पांडे बुझि पियहु तुम पानी।
जिहि मिटिया के घरमंह बैठे, तामहँ सिस्ट समानी।।
कबीर द्वारा अपनी रचनाओं में तर्कों के माध्यम से रूढ़िवादिता को निरुत्तर करने का प्रयत्न किया गया था। “पांडे ना कर सी वाद विवाद, या देही बिन शब्द न स्वाद”, इस पद के अंत में कबीर अपने निष्कर्ष पर पहुँच कर कहते हैं कि- कबीर ग्यान बिचारा अर्थात यह शरीर मिट्टी का बना हुआ है क्षणभंगुर है। मूर्तिपूजा, जातिप्रथा, धार्मिक भेदभाव, अंधविश्वास और तीर्थाटन आदि के खंडन में कबीर के बाणियों की तार्किक प्रखरता कविता को भी जीवंत बनाती है। बोधगम्य और लोकग्राह्य सादृश्य-विधान से भरी-पूरी सहज-सरल इन वाणियों की खास विशेषता है।
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में।
ना तो कौनो क्रिया कर्म में नहीं योग बैराग में।।
इस प्रकार कबीर प्रारंभिक उत्थान के रचनाकारों में सबसे महत्वपूर्ण हैं तथा उनकी वाणी में भाषिक दृष्टि से विविधता उपलब्ध है जो उनके काव्य को और भी सजीव बना देती है। भाव सौंदर्य और कलात्मकता की दृष्टि से भी कबीर अपने युग के अग्रणी रचनाकार थे।