वैदिकोत्तर काल की अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तनों ने भारत में नवीन धार्मिक आंदोलनों को जन्म दिया, किंतु यह कहना गलत होगा कि केवल आर्थिक कारण ही उन आंदोलनों के लिये उत्तरदायी थे। टिप्पणी करें।
18 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहास
हल करने का दृष्टिकोण:
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छठी शताब्दी ईसा पूर्व का काल धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक अशांति का काल था। 600 ई.पू. गंगा की घाटी में कई धार्मिक आंदोलनों की शुरुआत हुई। समकालीन स्रोतों से पता चलता है कि इस समय ऐसे 62 धार्मिक संगठन अस्तित्व में थे। इन धार्मिक सम्प्रदायों के उदय में सामाजिक,धार्मिक तथा आर्थिक कारकों की भूमिका निर्णायक रही।
इस समय उत्तर भारत में नई कृषि अर्थव्यवस्था का उदय हो रहा था। यहाँ बड़े पैमाने पर नए शहरों का विकास हुआ; जैसे- कौशांबी, कुशीनगर, बनारस, वैशाली, राजगीर आदि। इन शहरों में व्यापारियों तथा शिलाकारों की भूमिका में वृद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप वैश्य वर्ण के सामाजिक महत्त्व में वृद्धि हुई।
ब्राह्मणवादी समाज एवं साहित्य में वैश्य वर्ण के साहूकारी जैसे कार्यों को निम्नकोटि का समझा जाता था। फलस्वरूप वे अन्य धर्मों के प्रति उन्मुख हुए। प्रचलित वर्णव्यवस्था ने केवल ब्राह्मण वर्ण के वर्चस्व ने अन्य वर्णों को विरोध के लिये प्रेरित किया। यही कारण था कि बौद्ध तथा जैन धर्म के प्रणेता भी क्षत्रिय वर्ण से संबंधित थे। महावीर तथा बौद्ध धर्म के उत्थान में वैश्य वर्ण का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।
छठी शताब्दी के धार्मिक आन्दोलनों का बल मुख्य रूप से अहिंसा पर था। परिणामस्वरूप विभिन्न साम्राज्यों के मध्य युद्ध का अहिंसा के कारण पशुबलि में कमी आईं, जिससे कृषि अर्थव्यवस्था मजबूत हुई।
धर्मशास्त्रों में सूद पर लगाए जाने वाले धन को निकृष्ट कार्य बताया गया है, साथ ही इसमें ऐसे व्यक्तियों की भी आलोचना की गई जो सूद पर जीवित रहते हैं। यही कारण है कि वैश्यों ने नए धार्मिक आंदोलनों को समर्थन दिया।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि निःसन्देह वैदिकोत्तर काल की अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तनों ने भारत में नए धार्मिक आंदोलनों को जन्म दिया, किंतु यह कहना गलत है कि इन परिवर्तनों के लिए केवल आर्थिक कारक ही उत्तरदायी नहीं थे। वस्तुत: तत्कालीन समाज में उपजे अंतर्विरोधों के कारण भी नवीन धर्म तथा सम्प्रदायों की पृष्ठभूमि तैयार हुई।