अदालतें लंबित मामले रूपी बम पर बैठी हैं और ऐसे में न्यायपालिका को सक्षम बनाना अत्यंत आवश्यक हो गया है। चर्चा कीजिये।
उत्तर :
दृष्टिकोण
- भारत में लम्बित मामलों की संख्या का संक्षेप में उल्लेख करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये ।
- लंबित मामलों के प्रमुख कारणों और उन्हें सुधारने के उपायों की चर्चा कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये ।
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परिचय
कोविड-19 महामारी ने भारत में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के लगभग प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया है और जाहिर तौर पर न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं रही है। मार्च 2020 के बाद से अब तक न्यायालयों ने कुल मिलाकर भी अपने केसलोड के साथ काम ही नहीं किया है।
भारत में लंबित मामलों के कारण
- स्थायी रिक्तियाँ: भारत भर में न्यायालयों की स्वीकृत संख्या के हिसाब से रिक्तियाँ भरी नहीं जाती हैं और सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में ये रिक्तियाँ 30 प्रतिशत से अधिक हैं।
- इसके कारण निचली अदालतों में मुकदमे की औसत प्रतीक्षा अवधि लगभग 10 वर्ष तथा उच्च न्यायालयों में 2-5 वर्ष है।
- अधीनस्थ न्यायपालिका की खराब स्थिति: देश भर में ज़िला अदालतें भी अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे और खराब कामकाजी परिस्थितियों से ग्रसित हैं, जिनमें भारी सुधार की आवश्यकता है, विशेष रूप से तब जब वे उच्च न्यायपालिका द्वारा उठाई गई डिजिटल अपेक्षाओं को पूरा करना चाहते हैं।
- इसके अलावा न्यायालयों, चिकित्सकों एवं ग्राहकों के मामले में महानगरों और उससे बाहर के लोगों के बीच एक डिजिटल डिवाइड भी मौजूद है। इस जर्जर बुनियादी ढाँचे और डिजिटल निरक्षरता की बाधाओं को दूर करने में वर्षों लग सकते हैं।
- सरकार, सबसे बड़ी याचिकाकर्त्ता: खराब प्रारूप वाले आदेशों के परिणामस्वरूप कर राजस्व सकल घरेलू उत्पाद के 4.7 प्रतिशत के बराबर है और यह लगातार बढ़ रहा है।
- न्यायालय में लंबित याचिकाओं के कारण लगभग 50,000 करोड़ रुपए की परियोजनाएँ अधर में हैं और इसके चलते निवेश में भी कमी आ रही है। ये दोनों जटिलताएँ न्यायालयों द्वारा दिये गए निषेधाज्ञा और स्थगन आदेशों (मुख्यतः खराब प्रारूप और खराब तर्क वाले आदेश) के कारण उत्पन्न हुई हैं।
- कम बजटीय आवंटन: न्यायपालिका को आवंटित बजट सकल घरेलू उत्पाद के 0.08 और 0.09% के बीच है। केवल चार देशों (जापान, नॉर्वे, ऑस्ट्रेलिया और आइसलैंड) का बजटीय आवंटन कम है लेकिन भारत की तरह इन देशों में न्याय में देरी की समस्या नहीं है।
- लंबे अवकाश की प्रथा: आमतौर पर निचली आदालतों में विद्यमान लंबे अवकाश की प्रथा भी मामलों के विचाराधीन होने का एक प्रमुख कारण है।
आगे की राह
- पर्याप्त बजट: नियुक्तियों और सुधारों के लिये महत्त्वपूर्ण और आवश्यक व्यय की आवश्यकता होगी।
- पंद्रहवें वित्त आयोग और इंडिया जस्टिस रिपोर्ट/भारत न्याय रिपोर्ट 2020 की सिफारिशों ने इस मुद्दे को उठाया है तथा वित्त का निर्धारण हेतु उपाय सुझाए हैं।
- प्रसुप्त/निष्क्रिय जनहित याचिकाएँ: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी 'हाइबरनेटिंग' (प्रसुप्त/निष्क्रिय) जनहित याचिकाओं (जो उच्च न्यायालय के समक्ष 10 से अधिक वर्षों से लंबित हैं) तथा महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक नीति या कानून के प्रश्न से संबंधित नहीं हैं, का संक्षेप में ही निपटान करना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये।
- ऐतिहासिक असमानताओं में सुधार करना: न्यायपालिका सम्बन्धी सुधारों में न्यायपालिका के भीतर सामाजिक असमानताओं को दूर करना भी शामिल होना चाहिये।
- महिला न्यायाधीशों और ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर रहने वाली जातियों एवं वर्गों से संबंधित न्यायाधीशों को अंततः सीटों का उचित हिस्सा दिया जाना चाहिये।
- वैकल्पिक विवाद समाधान को बढ़ावा देना: प्रत्येक मामले को न्यायालय परिसर के भीतर हल करना अनिवार्य नहीं है बल्कि अन्य संभावित प्रणालियों का भी उपयोग किया जाना चाहिये। यह अनिवार्य किया जाना चाहिये कि सभी वाणिज्यिक मुकदमों पर तभी विचार किया जाएगा जब याचिकाकर्त्ता की ओर से एक हलफनामा प्रस्तुत किया जाए जिसमें यह उल्लेख किया गया हो कि मध्यस्थता और सुलह का प्रयास किया गया है और विफल हो गया है।
निष्कर्ष
अदालतें लंबित मामले रूपी बम पर बैठी हैं ऐसे में न्यायपालिका को सक्षम बनाना अत्यंत आवश्यक हो गया है। इस प्रकार, भारतीय न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति के बारे में समग्र और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।