प्रायद्वीपीय भारत के जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण का चित्र प्रारंभिक संगम साहित्य में प्रस्तुत किया गया है। विवेचना कीजिये।
16 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहास
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प्रायद्वीपीय भारत या दक्षिण भारत का क्रमबद्ध इतिहास हमें जिस साहित्य से ज्ञात होता है उसे संगम साहित्य के रूप में जाना जाता है । संगम–तमिल कवियों, विद्वानों, आचार्यों, ज्योतिषियों एवं बुद्धिजीवियों की एक परिषद् थी। तमिल भाषा में लिखे गये प्राचीन साहित्य को ही संगम साहित्य कहा जाता है। प्रमुख संगम ग्रंथ जिनमें हमें तत्कालीन समाज एवं संस्कृति की जानकारी मिलती है- शिलप्पादिकारम्, मणिमैखले और जीवक चिन्तामणि हैं।
तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के विषय में जानकारी प्राप्त करने का संगम साहित्य महत्त्वपूर्ण साधन है। इसमें हमें आर्य एवं द्रविड़ संस्कृति के समन्वय की झलक भी मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल तक उत्तर भारतीय समाज की कई परंपराओं को संगम कालीन समाज ने अपना लिया था। तमिल समाज में राजा को सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था।
शिलप्पादिकारम् और मणिमैखले तत्समय की सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। इनमें तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति, उनके दार्शनिक एवं शास्त्रार्थ संबंधित दृष्टिकोण को भी स्थान दिया गया है। इस काल में महिलाओं को अपना जीवन साथी चुनने की छूट थी। तमिल ग्रन्थ तोलकाप्पियम में आठ प्रकार के विवाहों का भी उल्लेख मिलता है। विधवाओं की स्थिति अधिक शोचनीय थी। उच्च जातियों में सती प्रथा के प्रचलन के भी संकेत मिलते हैं।
संगमकालीन समाज में वर्ण एवं जाति व्यवस्था उतनी कठोर नहीं थी जितनी उत्तर भारत में थी। सामाजिक वर्गों में ब्राह्मणों को समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। ब्राह्मणों के पश्चात् वेल्लार वर्ग का स्थान था। तत्कालीन समाज में शाकाहार एवं मांसाहार दोनों तरह के भोजन का प्रचलन था। वे लोक संगीत, नृत्य एवं विविध प्रकार के वाद्यों द्वारा मनोरंजन किया करते थे। धनी वर्ग पकी ईंट से बने मकानों में रहते थे जबकि निर्धन वर्ग कच्चे मकानों में रहते थे।
तमिल साहित्य में संस्कृतिक पक्षों की भी जानकारी प्राप्त होती है। इस काल में मृतक के संस्कारों में अग्निदाह एवं समाधीकरण दोनों ही विधियों द्वारा शव का अंतिम संस्कार किया जाता था। कभी-कभी शवों को खुले में जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था। संगम साहित्य से पता चलता है कि ब्राह्मण अपना समय अध्ययन एवं अध्यापन में व्यतीत करते थे, साथ ही अन्य धर्मों के अनुयायियों से उनका शास्रार्थ होता था।
प्रायद्वीपीय भारत के प्राचीन देवता मुरूगन को माना जाता था। कालांतर में इनका नाम सुब्रह्यण्य हो गया और स्कंद कार्तिकेय के साथ उनका तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। प्रायद्वीपीय भारत में इस काल में देवताओं की पूजा विधियाँ उत्तर भारत के ही समान थीं। कावेरीपत्तनम से इंद्र की पूजा के साक्ष्य भी मिलते हैं। इसके इसके लिये विशेष समारोह का आयोजन किया जाता था।
संगम साहित्य के अध्ययन से प्रायद्वीपीय भारत के समाज तथा संस्कृति की सबसे विश्वसनीय जानकारी प्राप्त होती है। समाज में रहने वाले सामान्य मनुष्यों की दिनचर्या का जितना सूक्ष्म विवरण इन साहित्यों में प्राप्त होता है, वह अन्य साहित्यों में बहुत ही दुर्लभ है।