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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    छायावाद के तात्पर्य से उत्पन्न अंतर्द्वंदों को स्पष्ट करते हुए इसकी उदय की परिस्थितियों कि विवेचना कीजिये।

    08 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    छायावाद शब्द के प्रथम प्रयोक्ता मुकुटधर पांडेय ने अपने निबंध में छायावाद की पाँच विशेषताओं का उल्लेख किया है जो इस प्रकार हैं- वैयक्तिकता, स्वातंत्र्य चेतना, रहस्यवादिता, शैलीगत वैशिष्ट्य, अस्पष्टता।

    पारंपरिक दृष्टिकोण:

    • छायावाद एक प्रतीकात्मक काव्य: प्रारंभ में लगभग सभी विद्वानों ने यही संकेत दिया कि सामान्यतः छायावाद का संबंध किसी प्रतीकात्मक या रहस्यात्मक काव्य से है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने छायावाद को परिभाषित करते हुए कहा कि- “छायावाद से लोगों का क्या मतलब है कुछ समझ में नहीं आता। शायद उनका मतलब है कि किसी कविता के भाव की छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहना चाहिये”।
    • स्वच्छंदतावाद का अवरोधक: आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी छायावाद के प्रति सकारात्मक नहीं थे, उनके अनुसार स्वच्छंदतावाद की स्वच्छ व प्रांजल धारा के विकास को छायावादी कवियों ने अपने रहस्यवादी व प्रतीकवादी काव्य के माध्यम से रोक दिया।

    समन्यवादी दृष्टिकोण:

    • गांधीवाद का साहित्यिक संस्करण: शुक्ल जी के पश्चात सर्वप्रथम शांतिप्रिय द्विवेदी ने छायावाद को गांधीवाद के साहित्यिक संस्करण के रूप में पहचान दिलाने की कोशिश की।
    • छायावाद और रहस्यवाद पर्यायवाची नहीं: सर्वप्रथम आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने पहली बार आचार्य शुक्ल की छायावाद संबंधी धारणाओं को गंभीर टक्कर दी। उन्होंने स्पष्ट किया कि छायावाद और रहस्यवाद पर्यायवाची नहीं है।
      • छायावाद का एक अंश भले ही रहस्यात्मक हो किंतु छायावाद की वास्तविक पहचान उससे होती है जोर राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रश्नों से जूझ रहा था। इसके अलावा उन्होंने दावा किया कि छायावादी रहस्यवाद मध्ययुगीन रहस्यवाद से काफी अलग है।
    • स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह: स्वच्छंदतावादी समीक्षक डॉ नागेंद्र छायावाद की सकारात्मक व्याख्या के लिये विख्यात हैं। उनकी परिभाषा के अनुसार छायावाद- “स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है”।

    नवीन प्रवृत्तियाँ:

    • स्वच्छंदतावाद या रोमांटिसिज्म: बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के उत्तरार्ध में हिंदी कविता में एक नई प्रवृत्ति का उदय हो रहा था जो पूर्व की काव्य प्रवृत्तियों से नहीं बल्कि द्विवेदी युग की वस्तुवादी-नैतिकतावादी दृष्टि से भी भिन्न न थी। इसी उदित होती नई प्रवृत्ति जिसे स्वच्छंदतावाद या रोमांटिसिज्म कहा जाता है, ने छायावाद के लिये पृष्ठभूमि तैयार की। द्विवेदी युग में इस प्रकार की काव्यधारा का संचालन श्रीधर पाठक जैसे कवि कर रहे थे।
    • छायावाद स्वच्छंदतावाद का अगला चरण: प्रारंभ में छायावाद को स्वच्छंदतावाद का एक और अवरोधक माना जाता था किंतु सर्वप्रथम आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने इस बात को स्पष्ट किया कि छायावाद स्वच्छंदतावाद का अवरोधक ना होकर उसके विकास का अगला चरण है।

    छायावाद के उदय की परिस्थितियाँ:

    • यूरोप का स्वच्छंदतावादी साहित्यिक आंदोलन: पुनर्जागरण से प्रेरित यूरोप के स्वच्छंदतावादी साहित्यिक आंदोलन ने भारतीय मध्यम वर्ग की सोच और संवेदना को नया धरातल दिया। मुक्ति की जैसी इच्छा और छटपटाहट भारत का मध्यम वर्ग इस समय महसूस कर रहा था वैसे ही भावना तत्कालीन यूरोपीय समाज में भी मौजूद थे। इसलिये यह स्वाभाविक था कि नए कभी उनके काव्य से प्रेरणा लेते। कीट्स, बायरन, वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज और शैली आदि रोमांटिक कवियों के काव्य और उनके लेखन ने उन्हें सोचने समझने का नया क्षेत्रीय प्रदान किया है।
    • सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति: इस काल की सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों ने भी छायावाद के उद्भव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रथम विश्व युद्ध में साम्राज्यवाद के समूचे ढांचे पर स्थाई और जबरदस्त प्रहार किया। 1917 की रूसी क्रांति ने भी संपूर्ण विश्व पर अपना प्रभाव जमाया। भारत में भी इसी दौर में जन आंदोलनों का सूत्रपात हुआ।
    • गांधी जी का भारत आगमन: 1916 में गांधी जी के भारत आगमन के बाद कांग्रेस का आंदोलन शहर में रहने वाले शिक्षित उच्च मध्य वर्ग से निकलकर गरीब किसान और मजदूरों के बीच भी फैल गया। असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन ने स्वतंत्रता की चेतना पूरे देश में फैला दी।
    • स्वतंत्रता और मुक्ति ही एकमात्र लक्ष्य: 1928-31 के दौरान क्रांतिकारी आंदोलनों का दूसरा चरण संपन्न हुआ जिसने जनता, मुख्य रूप से युवा वर्ग के मध्य अपनी गंभीर पहचान स्थापित की।

    इन सभी घटनाओं के कारण यह भावना प्रबल होने लगी कि केवल स्वतंत्रता और मुक्ति ही एकमात्र लक्ष्य हो सकता है। दासता से मुक्ति की यह भावना इतनी प्रबल हो रही थी कि या केवल राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी बल्कि प्राचीन विरोधियों मान्यताओं और रीति-रिवाजों से मुक्ति की कामना के रूप में उभर रही थी। इसी सूक्ष्म स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति छायावाद के रूप में हुई।

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