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प्रश्न :
भक्ति आंदोलन किसी विशिष्ट या व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा के प्रकटीकरण अतिरिक्त अन्य आयामों को समेटे रखने वाला आंदोलन भी था। विश्लेषण करें।
08 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
- भूमिका
- व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा से आशय
- अन्य पक्ष
मध्य काल में भक्ति आंदोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण के अलवार तथा नयनार संतों द्वारा की गई। बारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में रामानंद द्वारा इस आंदोलन का प्रचार प्रसार दक्षिण भारत से उत्तर भारत में किया गया।
इस आंदोलन को चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव ने और अधिक मुखर बना दिया। भक्ति आंदोलन का उद्देश्य था- हिन्दू धर्म एवं समाज में सुधार तथा इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में समन्वय स्थापित करना। अपने उद्देश्यों में यह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा।
मध्यकालीन भारतीय हिंदू समाज के धार्मिक जीवन में भक्ति आंदोलन के रूप में महत्त्वपूर्ण चेतना व जागृति का विकास हुआ। भक्ति काल में प्रत्येक सामाजिक, धार्मिक सुधारक संत के द्वारा समाज में किसी विशेष भगवान के प्रति भक्ति या आस्था का प्रचार -प्रसार किया गया जो इसे भक्ति आंदोलन की महत्त्वपूर्ण विशेषता बनाता है। गौर से देखें तो यह भारत में बहुदेववाद की स्थापित पंरपरा से भिन्न था।
दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों ने ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम और समर्पण को मोक्ष प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया। दूसरी ओर महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को नामदेव व तुकाराम ने अधिक मुखर बनाया तथा 'हरि' के प्रति अदम्य प्रेम व समर्पण का उपदेश दिया। महाराष्ट्र में संत रामदास ने राम की पूजा को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। भारत के हिंदी भाषी क्षेत्रों में भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत रामानन्द थे जिन्होंने भगवान राम के स्वरूप में भक्ति भावना का प्रकटीकरण किया। रामानन्द ने बताया कि केवल राम के प्रति प्रेम व समर्पण के माध्यम से ही मुक्ति पाई जा सकती है।
तुलसीदास ने भगवान राम में आस्था प्रकट की तथा राम को निरपेक्ष सत्य (अंतिम सत्य) के रूप में स्थापित किया। मीराबाई कृष्ण भक्ति की साकार प्रतिमा मानी जाती थीं। संत सूरदास भी अपनी रचनाओं में कृष्ण के मोहक रूप तथा राधा की कथाओं का वर्णन करते थे। इसके अतिरिक्त चैतन्य महाप्रभु ने श्रीकृष्ण की आराधना से भगवान के प्रति अदम्य प्रेमभाव का प्रकटीकरण किया है।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि मध्यकालीन भारत का भक्ति आंदोलन किसी विशिष्ट या व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा के प्रकटीकरण के संदर्भ में ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है किंतु इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि इन संतों ने अन्य की उपेक्षा या आलोचना की। इन्होंने केवल अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना को अभिव्यक्त किया। अतः स्पष्ट है कि यह किसी व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत ईश्वर को अपनाए जाने के अलावा अन्य आयामों को समेटे रखने वाला आंदोलन था।
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