पालि के उद्भव और विकास के साथ ही इसके विकास में बौद्ध धर्म के ग्रंथों के योगदान को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर :
पालि साहित्य के स्रोत:
- पालि के विकास के अध्ययन की सामग्री पालि साहित्य तथा अशोक के अभिलेखों में प्राप्त होती है। पालि में बौद्ध धर्म के थेरवाद अथवा हीनयान संप्रदाय के धार्मिक साहित्य की रचना हुई है। वास्तव में पालि शब्द किसी भाषा का द्योतक नहीं है। पालि का अर्थ है “मूलपाठ” अथवा “बुद्धवचन”।
पालि साहित्य का उद्भव:
- पंडित विष्णु शेखर भट्टाचार्य पालि शब्द को संस्कृत पंक्ति शब्द से निकला हुआ मानते हैं वह इसके ध्वनि परिवर्तन का क्रम पंक्ति>पन्ति>पट्ठि>पल्लि>पालि से माना है। कुछ विद्वानों का मानना है कि पालि गांव की भाषा थी और संस्कृत नगरों में बोली जाती थी।
- मैक्स वालेसर पालि शब्द की उत्पत्ति पाटलिपुत्र से मानी है। उनका मानना है कि ग्रीक में पाटलिपुत्र को पालब्रोथ लिखा जाता था। भिक्षु जगदीश कश्यप ने पालि महा व्याकरण में पालि शब्द की उत्पत्ति परियाम शब्द से माना है। पालि शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्ठकथाओं और उनके विशुद्ध भाग में मिलता है।
- आचार्य बुद्धघोष के कुछ ही समय पूर्व लंका में दिए गए दीपवंश ग्रंथ में भी पालि शब्द का प्रयोग बुद्धवचन के रूप में किया गया है।
- पालि भाषा के विकास में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यह किस प्रदेश की मूल भाषा थी? सिंघली परंपराओं से मागधी या मगध की भाषा मानती है।
- प्रोफेसर आर डेविड्स का इसे कोशल प्रदेश में छठी और सातवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में बोली जाने वाली भाषा मानते हैं। वेस्टर गार्ड इसे उज्जैनी प्रदेश की बोली मानते हैं।
पालि साहित्य का विकास:
- पालि साहित्य का विस्तार पालि या पिटक साहित्य और अनुपालि या अनुपिटक साहित्य में होता है। पालि साहित्य या पिटक साहित्य तीन भागों में विभक्त है- सुत्त, विनय और अभिधम्म पिटक।
- इसके अतिरिक्त इस भाषा का प्रयोग अशोक के शिलालेखों में किया गया। बुद्धघोष के ही समय जिन बौद्ध विद्वानों ने महात्मा बुद्ध के विषय में साहित्य रचना की जिसमें अश्वघोष, नागार्जुन, वसुबंधु और दिक्नाग प्रमुख हैं।
पालि साहित्य में विषयवस्तु:
- पालि साहित्य के क्षेत्र में काव्य की रचना बहुत कम हुई है। मानव जीवन की व्यापक एवं गहन अनुभूतियों का पहला दर्शन हमें त्रिपिटकों में दिखाई देता है। त्रिपिटक में संकलित भगवान तथागत के ऊंचे विचारों का विश्लेषण किया गया है। विषय की दृष्टि से पालि में दो प्रकार के काव्यों की रचना हुई है- वर्णनात्मक और आख्यानात्मक।
पालि भाषा का व्याकरण:
- लगभग 5वीं शताब्दी ईस्वी तक पालि भाषा में किसी भी प्रकार के व्याकरण ग्रंथ की रचना नहीं हुई थी। आचार्य बुद्धघोष ने जितनी भी निष्पत्तियाँ या प्रयोग किए हैं उनका आधार पाणिनि व्याकरण ही था। प्रोफ़ेसर बलदेव उपाध्याय ने पालि में उपलब्ध व्याकरण को तीन शाखाओं में विभक्त किया है:
- कच्चायन व्याकरण
- मोग्गालायन व्याकरण
- अग्गवंसकृत सद्दनिति
ध्वनि समूह का परिचय
- पालि में 47 ध्वनि मानी गई है यहाँ पर ऋ, ऐ, औ जैसे स्वरों का प्रयोग नहीं मिलता है तथा दो नए स्वर हृस्व ए और ओ मिलते हैं। पालि में श, ष नहीं मिलते हैं।
ह्रदय > हदय, कृषि > कसि
- विसर्ग नहीं मिलता है।
- स्वत्रंत स्थिति में ह् प्राण ध्वनि व्यंजन है, किंतु य, र, ल, या व अनुनासिक में संयुक्त होने पर।
- घोषीकरण: स्वर मध्य अघोष, व्यंजन घोष हो जाता है।
मकर > मगर