सांप्रदायिक अधिनिर्णय के द्वारा ब्रिटिश सत्ता ने दलितों की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास किया था किंतु इसने भारतीय समाज की विविधता में परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को अधिक गहरा ही किया। टिप्पणी करें।
07 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहास
हल करने का दृष्टिकोण
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भारत की प्रांतीय विधायिका में दलितों के प्रतिनिधित्व के बारे में 16 अगस्त, 1932 ई. को प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडॉनाल्ड द्वारा ब्रिटिश संसद में एक घोषणा की गई जिसे कम्युनल अवॉर्ड या सांप्रदायिक अधिनिर्णय के नाम से जाना जाता है। यह अंग्रेजों द्वारा भारत में अपनाई गई “फूट डालो और राज करो” की नीति का एक अन्य उदाहरण था।
अंग्रेज़ो के अनुसार यह ब्रिटिश शासन द्वारा दलितों की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिये प्रयास है। इसके प्रावधान निम्नलिखित थे:
सरकार ने इस घोषणा की की उनके द्वारा दलितों की स्थिति को राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करके सुधारने का प्रयास किया गया है किंतु गहनता से विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि इसके द्वारा भारतीय राष्ट्रवाद को कमजोर करने का प्रयत्न किया गया। जिसे निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-
इस प्रकार सांप्रदायिक अधिनिर्णय ने हिंदू-मुस्लिम हितों में टकराहट तो उत्पन्न की ही, साथ ही हिन्दुओं में भी सवर्णों और अस्पृश्यों के मध्य हितों के टकराव को जन्म दिया।
इसे निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:
निष्कर्षतः सांप्रदायिक अधिनिर्णय के द्वारा ब्रिटिश सत्ता ने स्वघोषित तौर पर दलितों की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास किया था किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इसका निहित उद्देश्य फूट डालो की नीति से प्रभावित था ऐसे में भारतीय राष्ट्रवाद को इसने नकारात्मक रूप से प्रभावित किया तथा भारतीय समाज की विविधता में परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को पाटने की बजाए और गहरा कर दिया।