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प्रश्न :
पुरानी हिंदी की भाषिक स्वीकारिता के विभिन्न विवादों को विद्वानों द्वारा किस प्रकार स्पष्ट किया गया।
05 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
विवेचना कीजिये?उत्तर :
प्रारंभिक विवाद:
- प्रारंभिक हिंदी कौन सी है और उसमें क्या-क्या रचनाएँ हैं यह प्रश्न बहुत जटिल है। किस रचना को हिंदी की पहली रचना माना जाए? आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ रामकुमार वर्मा और पंडित राहुल सांकृत्यायन आदि विद्वान तो पुरानी हिंदी को अपभ्रंश में ही समाहित कर देते हैं तथा इस भाषिक स्थिति को पृथक नाम देने की कोई आवश्यकता नहीं समझते हैं।
- इसके विपरीत डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा मध्यदेश को वर्तमान हिंदी प्रदेश की संज्ञा देते हैं तथा जिसका वे देश के इतिहास में असाधारण महत्व मानते हैं। मध्य प्रदेश के 13 जनपद स्वीकार कर वहाँ बोली जाने वाली बोलियों का सामूहिक रूप हिंदी मानते हैं।
- डॉक्टर हरदेव बाहरी प्रारंभिक हिंदी के अंतर्गत एक नहीं 13 संभावनाएँ मानते हैं जैसे कि- सिद्धों की वाणी या स्वयंभू कृत पउमचरिउ आदि ।
काल:
- डॉक्टर बाहरी के अनुसार पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी का मत सही जान पड़ता है कि 11वीं शताब्दी की परवर्ती अपभ्रंश से पुरानी हिंदी का उदय माना जा सकता है।
- यहाँ पर कठिनाई यह है कि उस संक्रांति काल की सामग्री इतनी कम है कि उससे किसी भाषा के ध्वनिगत और व्याकरणिक लक्षणों की पूरी-पूरी जानकारी नहीं मिल सकती हो।
- इसी प्रकार डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त और कैलाश चंद्र भाटिया के विचार के अनुसार रोडा कृत राउल बेलि एकमात्र ऐसी कृति है जिसमें इस भाषा के लक्षण मिलते हैं। इसी के आधार पर हिंदी का पूर्व रूप निर्धारित किया जा सकता है।
उद्गम और विकास:
- किस काल के साहित्य को अपभ्रंश माना जाए और कहाँ से प्राप्त साहित्य को अपभ्रंश ना कह कर पुरानी हिंदी कहा जाए अर्थात कहाँ से हिंदी के पुराने स्वरूप का उद्गम और विकास हुआ। यह अत्यधिक विवाद का विषय है।
- इसके बावजूद भी चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने कहा कि पुरानी हिंदी से तात्पर्य- “खड़ी बोली हिंदी व मानक हिंदी के पूर्व रूप से है।”
- आगे चलकर पुरानी हिंदी का प्रयोग अपभ्रंश के संदर्भ में आचार्य शुक्ल ने “हिंदी साहित्य का इतिहास” में किया की हिंदी काव्य भाषा के पुराने रूप का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है तथा यही देश भाषा मिश्रित अपभ्रंश अर्थात पुरानी हिंदी की काव्य भाषा है।
स्रोत:
- पुरानी हिंदी के संदर्भ में व्याकरणिक एवं शाब्दिक शब्द संरचना के उद्घाटन के महत्वपूर्ण स्रोत दो प्रमुख कृतियाँ- प्राकृत पैंगलम और राउल बेलि हैं।
- प्राकृत पैंगलम: यह छंद शास्त्र का ग्रंथ है। छंदों के उदाहरण स्वरूप जो पद इसमें संकलित हैं वह किसी एक काल का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। डॉ सुनीति कुमार चटर्जी इस ग्रंथ में संकलित छंदों के उदाहरणों को नवी से चौदहवीं शताब्दी तक की रचनाएँ मानते हैं। डॉ नामवर सिंह ने व्यावहारिक रूप से यह निष्कर्ष निकाला है कि प्राकृत पैंगलम हेमचंद्र के दोहे और नव्य भाषाओं के प्राचीनतम रूप के बीच की कड़ी का प्रतिनिधित्व करता है।
- राउल बेलि: शताब्दी का शिलांकित भाषा काव्य है जिसके रचयिता रोडा है। इसकी भाषा पर टिप्पणी करते हुए डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त का कथन है कि- “लेख की भाषा पुरानी दक्षिण कोसली है जिस प्रकार उक्ति व्यक्ति प्रकरण की पुरानी कोसली है। उस पर समीपवर्ती तत्कालीन भाषाओं का कुछ प्रभाव अवश्य ज्ञात होता है।”
भाषागत प्रमुख विशेषताएँ
- ण का प्रयोग बहुतायत से हुआ जिस पर प्राकृत अपभ्रंश का स्पष्ट प्रभाव है जैसे:
- भाणु, भाषणु, पहिणु, विण, भण, भयणु
- नासिक के ध्वनियों में ण अतिरिक्त न तथा म है जैसे- गवारिम्व, म्वालउ, चिंतवन्तई
- सानुनासिकता तथा अनुस्वार दोनों के लिये लेखन में (-ं) बिंदु का प्रयोग मिलता है।
- व और ब समान रूप से उत्कीर्ण किए गए हैं।
- य का प्रयोग ज के स्थान पर मिलता है जैसे कियई=किज्जई
- भाषा प्रधानता उकार बहुला है: कजालु, घरु
- रूप की दृष्टि से निर्विभक्तिक प्रयोग कर्ता एवं कर्म में मिलते हैं, करण कारक में “एँ” और संबंध कारक में “हूँ” प्राप्त होते हैं संबोधन में “रे” का प्रयोग किया जाता है।
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