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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    अपभ्रंश के प्रारम्भिक साहित्य विकास के साथ ही इसके हिंदी के साथ अंतर्संबंधों पर टिप्पणी कीजिये।

    04 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    नामकरण:

    • अपभ्रंश भाषा का समय 500 ईसवी से 1000 ईसवी तक माना जाता है जबकि 15वी शताब्दी तक इसमें साहित्य रचना होती रही है। कवि विद्यापति ने इस भाषा की विशेषता बताते हुए कहा कि “देसिल बचना सब जन मिट्ठा, ते तैसन जमञो अवहट्टा” अर्थात देश की भाषा सभी लोगों को मीठी लगती है तथा इसे ही अवहट्ट भाषा कहा जाता है। इस काल में अपभ्रंश को अवहट्ट नाम से भी जाना जाता था।
    • अपभ्रंश शब्द का प्राचीनतम प्रमाणिक प्रयोग पतंजलि के महाभारत में मिलता है। दूसरी शताब्दी में भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में अपभ्रंश के लिये भी भ्रष्ट शब्द का प्रयोग किया। अपभ्रंश मध्यकालीन आर्य भाषाओं और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं जैसे हिंदी, बंगला, मराठी, गुजराती आदि के बीच की कड़ी है।

    समय:

    • डॉक्टर सुकुमार सेन ने अपनी पुस्तक “ए कंपैरेटिव ग्रामर ऑफ मिडिल इंडो आर्यन” में यह माना है कि अपभ्रंश का काल 1 ईसवी से 600 ईसवी तक है।

    क्षेत्र विस्तार:

    • भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में उकार बहुलता वाली भाषा का प्रयोग सिंधु सौवीर और इन क्षेत्रों के आश्रित देशों के लिये किया है। इससे पता चलता है कि भारत के समय तक उस समय के प्रयोग में आने वाली भाषा में अपभ्रंश की विशेषताएं भारत के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों में प्रकट हुई थी।
    • ईसा की 10वीं शताब्दी में राजशेखर ने अपनी पुस्तक काव्यमीमांसा में अपभ्रंश का विस्तार संपूर्ण मरूभूमि अर्थात राजस्थान के क्षेत्र में बताया।
    • अपभ्रंश में लिखित जो साहित्य आज हमें मिलता है उसका रचना स्थान राजस्थान, गुजरात, पश्चिमोत्तर भारत, बुंदेलखंड, बंगाल और सुदूर दक्षिण तक प्रतीत होता है। इस प्रकार यह स्वीकार किया जाता है की 11वीं शताब्दी तक अपभ्रंश का प्रचार प्रसार समस्त भारत और दक्षिण में हुआ था।

    अपभ्रंश साहित्य:

    • इसके प्रारंभिक साहित्य का विकास मालवा गुजरात तथा राजस्थान में हुआ। अतः इस क्षेत्र की अपभ्रंश तत्कालीन साहित्यिक भाषा बन गई और बंगाल तथा दक्षिण में इस भाषा में साहित्य रचना हुई।
    • अपभ्रंश के प्रचार-प्रसार में आभीर जाति का संबंध बहुत गहरा है इसे सिंधु के पश्चिम में निवास करने वाली जाति के रूप में जाना जाता है। आधुनिक गुर्जरों का आभीर जाति से गहरा संबंध है। अपभ्रंश के लिये आभीरी भी एक नाम प्रयुक्त होता है।

    अपभ्रंश और हिंदी में अंतर्संबंध:

    • नागरी प्रचारिणी पत्रिका में पुरानी हिंदी शीर्षक में पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने अपभ्रंश को “पुरानी हिंदी” नाम दिया है। रामचंद्र शुक्ल ने प्राकृत की अंतिम अवस्था से ही हिंदी साहित्य का विकास माना है।
    • राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी काव्यधारा में अपभ्रंश काव्य का संग्रह प्रकाशित करते हुए उसकी भाषा को हिंदी का प्राचीन रूप कहा है। वास्तव में विक्रम की आठवीं, नौवीं और दसवीं शताब्दियों को अपभ्रंश साहित्य का उत्कर्ष युग माना जाता है।
    • पुष्पदंत चतुर्मुख तथा बौद्ध सिद्धि इसी युग के प्रतिभाशाली कवि माने जाते हैं। हिंदी साहित्य के सभी विद्वान इस मत को स्वीकारते हैं कि पुराने हिंदी का संबंध अपभ्रंश के साथ बहुत घनिष्ठ है।

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