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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    हिंदी नाटक परंपरा में राष्ट्रीय चेतना की मूल भावना का अंतर्वेशन किस प्रकार हुआ है। विश्लेषण कीजिये।

    01 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    राष्ट्रीय चेतना का अभिप्राय (समाज की उन्नति) राष्ट्र की चेतना-प्राण शक्ति समाज से है। राष्ट्र शब्द समाज के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। जिस क्षण समुदाय में एकता की एक सहज लहर हो,उसे राष्ट्र कहते हैं। समाज और साहित्य का भी विरोध संबंध है। साहित्य सामुदायिक विकास में सहायक होता है, सामुदायिक भावना भी राष्ट्रीय चेतना का अंग है। 

    हिंदी नाटक में राष्ट्रीय चेतना को भारतेंदु युग से ही देखा जा सकता है। भारतेंदु ने सभी विधाओं में सबसे सशक्त माध्यम नाटक को ही माना और वे जानते थे कि नवजागरण और प्रगतिशील चेतना को नाटक के माध्यम से उद्भाषित किया जा सकता है। भारतेंदु की रचना “भारत दुर्दशा” भारतीय राष्ट्रीयता की अग्रदूत थी जनसाधारण के लिये ऐसी रचनाएँ परम आवश्यक थी इनमें केवल राष्ट्रीय भावना ही नहीं वरन अतीत गौरव के प्रति अनुराग तथा भारत की तत्कालीन दुर्दशा पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है। “भारत जननी ‘के माध्यम से भारतेंदु ने भारत माता की परिकल्पना की है। “अंधेर नगरी” ब्रिटिश सत्ता के प्रबंध व्यवस्था पर कटाक्ष करता है तथा “सत्य हरिशचंद्र” में पुरुष सत्ता का, सत्य उद्धरण का के लिये आह्वान करते हैं। “नील देवी” में गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण दिलाकर भारतीयों को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये अनु प्रेरित किया गया है। 

    भारतेंदु के पश्चात प्रसाद युग में नाट्य साहित्य को नया जीवन मिला। इस समय के नाट्य साहित्य में भारत की राजनीतिक व आर्थिक आशाओं का यथार्थ चित्रण कर राष्ट्रीयता का शंखनाद किया। राष्ट्रीयता, देशभक्ति विदेशी शिकंजे से देश को आजाद कराने का संघर्ष, एकता और सामूहिक जागरण का सबसे ही उन दिनों की प्रेरक शक्तियाँ थी और उन्हीं से प्रसाद का नाटककर्म विकसित हुआ।

     प्रसाद ने ऐतिहासिक चरित्रों के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना को प्रेरणा और धार देने का प्रयास किया। उनके सभी नाटक राष्ट्रीयता का पुट लिये हुए हैं, उनके प्रमुख हैं- राज्यश्री, हर्षवर्धन, अजातशत्रु, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी। प्रसाद ने इन नाटकों के माध्यम से विशाल जनमानस को भारतवर्ष के सम्मान के रक्षा के लिये सोचने को विवश कर दिया।

    प्रसाद धारा के ऐतिहासिक पौराणिक नाटककारों में हरिकृष्ण प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, लक्ष्मीनारायण मिश्र, डॉ. रामकुमार वर्मा और सेठ गोविंद दास प्रमुख हैं। हरिकृष्ण प्रेमी ने मुसलमान एवं राजपूत काल के इतिहास को अपने नाटकीय कथानकों का आधार बनाया उन्होंने अपने नाटकों के द्वारा राष्ट्रीय एकता के भाव पैदा करने का प्रयास किया

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