उत्तर :
दृष्टिकोण
- अध्यादेशों के लगातार उपयोग के संदर्भ का उल्लेख करके उत्तर शुरू कीजिये।
- अध्यादेशों के पुनः प्रवर्तन से जुड़े मुद्दों का उल्लेख कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय
अध्यादेश की कल्पना मूल रूप से आपातकालीन प्रावधान के रूप में की गई थी। किंतु हाल के वर्षों में अध्यादेश के लगातार उपयोग से विधायिका की प्रासंगिकता एवं शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत पर प्रश्नचिह्न खड़ा होता है।
अध्यादेश के प्रत्यावर्तन से संबंधित मुद्दे:
- विधायी शक्ति का उपयोग: विधियों का निर्माण विधायिका का कार्य है। कार्यपालिका को यह शक्ति विशेष परिस्थितियों में तत्काल आवश्यकताओं के लिये प्रदान किया जाता है एवं इस प्रकार बनाए गए कानून की समाप्ति स्वत: तय होती है। कोई भी अध्यादेश दोनों सदनों की कार्यवाही शुरू होने के पश्चात् छह सप्ताह की समयसीमा तक ही लागू रहता है (यदि सदनों से समर्थन प्राप्त न हो तो) किंतु अध्यादेशों को पुनः आगे बढ़ाना इस समय सीमा को नज़रअंदाज करता है।
- शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन: वर्ष 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की "आधारभूत संरचना" के रूप में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को सूचीबद्ध किया।
- अध्यादेश को संसद के सत्र में नहीं होने पर तात्कालिक कार्रवाई के लिये बनाया गया है, यह विधायिका का विकल्प नहीं है। हालाँकि अनुच्छेद 123 अध्यादेशों की कोई संख्यात्मक सीमा तय नहीं करता है।
- इस तरह, अध्यादेशों का पुनर्संयोजन शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, क्योंकि यह कार्यपालिका को विधायिका से विचार-विमर्श या अनुमोदन के बिना स्थायी रूप से विधि बनाने की अनुमति देता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को नजरअंदाज करना: अध्यादेशों के बारंबार उपयोग पर सख्त फैसले के बाद भी केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने कई बार सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों की अनदेखी की है।
- उदाहरण के लिये वर्ष 2013 और वर्ष 2014 में प्रतिभूति कानून (संशोधन) अध्यादेश को तीन बार प्रख्यापित किया गया था। इसी प्रकार भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन करने का अध्यादेश दिसंबर 2014 में जारी किया गया था एवं दो बार- अप्रैल और मई 2015 में पुन: प्रख्यापित किया गया।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान ने विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण का प्रावधान किया है, जिसमें कानून बनाना विधायिका का कार्य है। कार्यकारी को आत्म-संयम दिखाना चाहिये और अध्यादेश बनाने का उपयोग केवल अप्रत्याशित या ज़रूरी मामलों में करना चाहिये।