कबीर के इतर संत कवियों के साहित्य में खड़ी बोली के प्रारंभिक स्वरूप का विवेचन कीजिये।
11 Apr, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
हल करने का दृष्टिकोण:
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संत कवियों की भाषा को प्रायः 'सधुक्कड़ी' या 'पंचमेल खिचड़ी' कहा जाता है। 'सधुक्कड़ी' का अर्थ होता है- साधुओं की भाषा अर्थात् ऐसी भाषा जो कई स्थानों की भाषाओं के संयोग से निर्मित हुई हो। संत कवियों ने अपनी मिश्रित भाषा में खड़ी बोली को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। कहीं-कहीं तो इनकी रचनाएँ मूलतः खड़ी बोली में ही प्रतीत होती हैं।
संत साहित्य की प्रारंभिक रचनाओं में राजस्थानी एवं पूर्वी हिंदी का प्रयोग खड़ी बोली की अपेक्षा अधिक है। परंतु संत साहित्य के उत्तरार्द्ध में खड़ी बोली का प्रभाव अधिक स्पष्ट होकर उभरता है। मलूकदास का निम्नलिखित दोहा 17वीं शताब्दी के संत साहित्य की इसी प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है-
"अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए सबके दाता राम।"
इस दोहे का व्याकरणिक आधार निसंदेह खड़ी बोली का है। 'काम', 'दाता', 'गए', 'कहा', 'अजगर', 'सबके' जैसे शब्द भी स्पष्ट रूप से खड़ी बोली के हैं। संबंध कारक के रूप में 'के' का प्रयोग भी खड़ी बोली के प्रयोग को ही इंगित करता है।
इसी प्रकार रीतिकालीन काव्य में दरिया साहब, पलटू साहब तथा यारी साहब जैसे संत कवि जिस भाषा में लिख रहे थे वह खड़ी बोली के ही निकट थी जैसे-
"जात हमारी ब्रह्म है, मात पिता है राम
गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम"
इस उदाहरण में भी खड़ी बोली की प्रमुख प्रवृत्ति अकारांतता को देखा जा सकता है। खड़ी बोली के अधिकरण कारक के रूप में 'में' का प्रयोग किया गया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि आधुनिक काल में खड़ी बोली जिस रूप में विकसित हुई है उसके पीछे संत साहित्य की गहरी प्रेरणा विद्यमान रही है।