‘जयशंकर प्रसाद के नाटकों के स्त्री पात्र सदैव श्रेष्ठ रहे हैं’, इस कथन के आलोक में ‘स्कंदगुप्त’ में स्त्री पात्र परिकल्पना की विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।
21 Mar, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यप्रसाद उस संक्रमण काल के लेखक हैं जब नारी पहली बार घर से बाहर निकलकर स्वाधीनता संग्राम जैसे वृहत् दायित्वों को निभा रही थी और पुरुष उसके नए रूप को देखकर अचंभित था। इसलिये नारी को लेकर उनके दृष्टिकोण में एक उहापोह की स्थिति विद्यमान है। प्रसाद की ‘कामायनी’ जैसे- महाकाव्य ‘चंद्रगुप्त’ और ‘स्कंदगुप्त’ नाटकों में उनकी नारी चेतना साफ तौर पर झलकती है।
प्रसाद की मान्यता है कि नारी का वास्तविक रूप भावना, कोमलता, परोपकार तथा श्रद्धा जैसे- गुणों से मिलकर बनता है। जिस नारी में ये सभी गुण मौजूद हों, उसकी महानता पर वे मुग्ध नज़र आते हैं ‘स्कंदगुप्त’ में भी ऐसे कई नारी चरित्र हैं जो इन गुणों का समग्र या आंशिक प्रतिनिधित्व करते हैं।
‘देवसेना’ ऐसे सभी गुणों से युक्त है, मुख्यतः त्याग व राष्ट्रप्रेम की भावना उसमें प्रखर है। उदाहरण के लिये उसका कथन है- “मानव का महत्त्व तो रहेगा ही, उसका उद्देश्य भी सफल होना चाहिये। आपको अकर्मण्य बनाने के लिये देवसेना जीवित नहीं रहेगी।”
इसके अलावा देवकी का क्षमा का गुण, कमला का देश के दायित्व के लिये पुत्र मोह का त्याग, राम का किसी भी लालच के सामने न झुकने की ताकत का गुण आदि भी प्रसाद की नारी दृष्टि के द्योतक हैं।
प्रसाद के साहित्य में नारी चरित्र की महानता दिखती है किंतु कथानक की दृष्टि से उनका स्वतंत्र महत्त्व कम है यद्यपि ‘कामायानी’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’ जैसी रचनाओं का नामकरण भी नायिका केंद्रित है, तब भी साधारणतः उनके नारी चरित्र पुरुष नायक के सहयोगी बनकर ही आते हैं लेकिन ‘स्कंदगुप्त’ इस दृष्टि से एक बेहतर अपवाद है क्योंकि इसमें देवसेना का महत्त्व बहुत ज़्यादा है।
‘स्कंदगुप्त’ के नारी-चरित्रों में एक वर्ग बुरे चरित्रों का भी है। प्रसाद उन नारियों को अच्छा नहीं मानते जो नैतिक मूल्यों से समझौता करती हैं, स्वार्थ या लालच के कारण अपनी प्रतिबद्धताओं को भूल जाती हैं। ‘विजया’ और ‘अनंत देवी’ ऐसे ही कमज़ोर पात्र हैं, जहाँ वह विजया को व्यभिचारी चरित्र के लिये उससे आत्महत्या कराते हैं, वहीं उन्होंने अनंत देवी के नैतिक मूल्यों से विचलन के बाद उसका हृदय परिवर्तन कराया है।
उपरोक्त विश्लेषण से स्कंदगुप्त के नारी पात्रों की विशेषता स्पष्ट होती है। हालांँकि प्रसाद की नारी दृष्टि प्रगतिशील आलोचकों को खटकती रही है किंतु प्रसाद ने अपने नाटकों में नारियों को तुलनात्मक रूप में ज़्यादा स्वतंत्रता प्रदान की है। उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है कि देवसेना का अंतिम निर्णय किसी बाध्यता का नहीं बल्कि उसकी स्वतंत्र वैचारिकता का प्रमाण है।