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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    ‘महाभोज’ उपन्यास को क्या एक सशक्त राजनीतिक उपन्यास का दर्जा दिया जा सकता है? उपन्यास में चित्रित पात्रों के आधार पर समीक्षा कीजिये।

    16 Mar, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    ‘महाभोज’ राजनीतिक विषयों पर लिखे गए हिंदी के सफलतम उपन्यासों में से एक है। इस उपन्यास में मन्नू भंडारी ने आपातकाल के बाद के भारतीय राजनीतिक परिदृश्य का प्रामाणिक चित्रण किया है। महाभोज की मूल समस्या राजनीतिक विकृति है।

    इस उपन्यास में भारतीय राजनीति में व्याप्त अवसरवादिता, जोड़-तोड़ और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने के साथ-साथ राजनीति तथा अपराध के गठजोड़ की भी गहन पड़ताल की गई है। लेखिका ने अलग-अलग चरित्रों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि किस प्रकार जुर्म और सियासत एक-दूसरे पर टिके हैं।

    इस रचना में राजनीति की संवेदनशील अवसरवादिता को सुकुल बाबू के माध्यम से दर्शाया गया है जिसे निम्नलिखित कथन से स्पष्ट किया गया है-

    “ज्योतिष पर अनंत विश्वास है सुकुल बाबू को xxxx नीलम तो अभी पिछले महीने ही पहना; और देखो रंग लाया। बिसू की मौत xxxxx लगता है जैसे- थाली में परोसकर मौका आ गया उनके सामने।”

    सुकुल बाबू वरिष्ठ राजनेता हैं जो चुनाव जीतने के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। मारपीट और खून- खराबा उनके लिये चुनावी अभियान का अभिन्न अंग है।

    ‘दा साहब’ जो कि मुख्यमंत्री हैं, ने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिये ही सारे दाँव-पेंच खेले। जोरावर जैसे अपराधी को संरक्षण देना, सक्सेना जैसे- ईमानदार पुलिस अधिकारी का उत्पीड़ित करना या झूठे नाटकों के माध्यम से जनता को आकर्षित करना आदि। महाभोज में ऐसा ही एक प्रसंग है जब दा साहब हीरा को अपनी कार में बिठाते हैं-

    “जब दा साहब ने उसे गाड़ी में बैठने को कहा तो वह एकदम हक्का-बक्का रह गया जिंदगी में कब नसीब हुआ है उसे गाड़ी में बैठना और वह भी दा साहब की गाड़ी में। दा साहब के इस बड़प्पन के आगे सभी नतमस्तक हो गए हैं। बड़े-बूढ़ों को तो शबरी और निषाद की कथाएँ याद हो आईं। किसी-किसी को ईष्यों भी हो रही है हीरा से। बेटे तो जाने कितनों के मरते हैं- पर ऐसा मान?”

    ‘राव’ और ‘चौधरी’ के माध्यम से लेखिका ने भ्रष्टाचारी मानसिकता और राजनीति में विद्यमान भ्रष्टाचार को पूरी तरह से उभारा है। उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें राव और चौधरी की बेशर्म मांग सुनने के बाद लोचन बाबू सोचते हैं-

    “इसी क्रांति का सपना देखा था? और क्या इसी टुच्चेपन की सौदेबाज़ी के लिये मंत्रिमंडल को गिराने की बात सोच रहे हैं वे? नाम, चेहरे, लेबल भले ही अलग-अलग हों पर अलगाव है कहाँ - सुकुल बाबू ......... दा साहब ............ राव ............ चौधरी।”

    उपयुक्त चरित्रों के विश्लेषण से महाभोज की मूल संवेदना स्पष्ट होती है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यह एक सशक्त राजनीतिक उपन्यास है, साथ ही वर्तमान में भी प्रासंगिक है।

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