निम्नलिखित पद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिये:
a. "चेतना का सुंदर इतिहास अखिल मानव भावों का सत्य;
विश्व के हृदय पटल पर दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य
विधाता की कल्याणी सृष्टि सफल हो इस भूतल पर पूर्ण;
पटें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज और ज्वालामुखी हों चूर्ण।
b. शत घूर्णावर्त, तरंग – भंग उठते पहाड़,
जल राशि – राशि जल पर चढ़ता खाता पहाड़,
तोड़ता बंध – प्रतिसंघ धरा, हो स्फीत - वक्ष
दिग्विजय – अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष।
हल करने का दृष्टिकोण:
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a. संदर्भ
प्रस्तुत पद्यखंड आधुनिक कविता के पुरोधा कवि जयशंकर प्रसाद के भाव प्रधान महाकाव्य ‘कामायनी’ के ‘श्रद्धा सर्ग’ से उद्धृत है।
प्रसंगः प्रस्तुत प्रसंग में श्रद्धा सृष्टि के भावी विकास पर चिंतन करती है और सृष्टि के पुनर्निर्माण के संबंध में अत्यंत उत्सुक भी है।
व्याख्याः मनुष्य के नवीन निर्माण का यह सुंदर इतिहास समस्त मानवोचित सद्गुणों वाला मानवीय चेतना का इतिहास होगा। श्रद्धा की आकांक्षा है कि साम्य भाव से प्रेरित मानवीय चेतना का यह इतिहास संसार में द्रव्य और अलौकिक अक्षरों से अंकित हो। वह चाहती है कि विधाता की भावी कल्याणमयी मानवीय सृष्टि इस भू-मंडल पर पूर्णतः सफल हो। सृष्टि के इस पुनर्विकास के लिये भले ही सागर पट जाए अथवा मानव विद्वेष की गहराइयाँ सागर के समान हो जाएँ। ग्रह नक्षत्र समूह आकर्षण विहीन और समस्त ज्वालामुखी भयानक रूप से फट जाए परंतु हर स्थिति में मानवीय सृष्टि का पूर्ण विकास अत्यंत आवश्यक है।
विशेष
1. रूपक अलंकार = हृदय – पटल
2. रूपकातिश्योक्ति अलंकार = ज्वालामुखियाँ
b. संदर्भ
प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक हिंदी कविता की छायावादी काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ से उद्धृत हैं।
प्रसंगः प्रस्तुत प्रसंग में युद्ध भूमि से पराजय भावना से ग्रस्त होकर लौटे राम की आँखों से आँसू की दो बूँदें टपक कर गिरती हैं। उन्हें देखकर पहले तो हनुमान भक्ति-भाव में रत होने के कारण कल्पनाएँ करते हैं। किंतु यथार्थ का भान होते ही वे क्रोध से भर उठते हैं।
व्याख्याः कवि इन पंक्तियों में कह रहा है कि जिस प्रकार प्रलय के समय सागर के भीतर सैकड़ों भँवर चक्कर काटते हुए सागर का मंथन करते हैं, लहरें अपने आवेग से उठती गिरती हैं, उन तरंगों के कारण सागर के वक्ष पर जल के पहाड़ उठते एवं गिरते हैं, उसी प्रकार तरह-तरह के प्रबल आवेग हनुमान के हृदय को उद्वेलित करने लगे। जिस प्रकार प्रलंयकारी समुद्र अपने मार्ग के प्रत्येक अवरोध को दूर करता हुआ पृथ्वी को अपने स्फीत वक्ष में समेटते हुए उसे जलमग्न कर देता है और अपना विस्तार करता है तथा संपूर्ण दिशाओं पर विजय प्राप्त करने के लिये प्रतिपल वेग के साथ आगे बढ़ता जाता है, उसी प्रकार हनुमान का वक्षस्थल भी अपने विराट व्यक्तित्व के साथ विस्तार पाने लगा।
विशेषः