मरुस्थलीकरण के प्रक्रम की जलवायविक सीमाएँ नहीं होती हैं। उदाहरणों सहित औचित्य सिद्ध कीजिये। (150 शब्द) (UPSC GS-1 Mains 2020)
18 Jan, 2021 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोल
हल करने का दृष्टिकोण
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यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेज़र्टिफिकेशन (UNCCD) के अनुसार, मरुस्थलीकरण का अर्थ शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क या कम आद्रता वाले क्षेत्रों में भूमि क्षरण है, जो जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों सहित विभिन्न कारकों की वजह से होता है। हालाँकि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो जलवायु सीमाओं को लाँघती हुई दुनिया के रेगिस्तानों और उसके आसपास रहने वालों को प्रभावित करती है। मरुस्थलीकरण के कारण विश्व के लगभग दो अरब से अधिक लोगों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका को खतरा है।
मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को कई कारक प्रभावित करते हैं। मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया सिर्फ एक विशेष जलवायु सीमा, यानी शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है। यह एक वैश्विक घटना है जिसे निम्नलिखित उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक मुद्दा है जो पिछली दो शताब्दियों में मानव जाति द्वारा किये गए विकास के लिये खतरा हो सकता है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी मरुस्थलीकरण को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण कारक है।
जैसे-जैसे भूमि की सतह पृथ्वी की सतह की तुलना में अधिक तेज़ी से गर्म हो रही है, इसके परिणामस्वरूप वैश्विक तापमान बढ़ने के साथ भूमि की सतह की तुलना में समुद्र के तापमान में हल्की वृद्धि होती है।
इसके अलावा जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग में प्राकृतिक रूप से परिवर्तनशीलता भी दुनिया भर में वर्षा के पैटर्न को प्रभावित कर सकती है, जिससे मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज़ होती है।
इसके साथ ही मानव गतिविधियों द्वारा उत्पन्न वार्मिंग भी इसमें योगदान देता है। मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया बाढ़, सूखा, भूस्खलन जैसी चरम मौसमी घटनाओं के कारण भी तेज़ होती है।
मृदा क्षरण: मरुस्थलीकरण की एक मुख्य प्रक्रिया मृदा क्षरण है। यह आमतौर पर प्राकृतिक कारणों से होता है। जैसे- हवा, बारिश और लहरों के माध्यम से। लेकिन जुताई, चराई, या वनों की कटाई सहित मानव निर्मित गतिविधियों के कारण यह प्रक्रिया तेज़ हो सकती है।
द वर्ल्ड एटलस ऑफ डेज़र्टिफिकेशन (2018) के अनुसार, भूमि क्षरण की वैश्विक सीमा निर्धारित करना संभव नहीं है।
इसके अलावा मिट्टी का कटाव एक वैश्विक घटना है जो दुनिया के लगभग सभी प्रमुख बायोम को प्रभावित करती है। उत्तर भारत में धूल भरी आँधी की घटनाएँ इसका प्रमाण है।
मृदा उर्वरता में कमी: मिट्टी की उर्वरता का ह्रास मरुस्थलीकरण का दूसरा रूप है। कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये (चाहे वह एक विकसित या विकासशील देश हो) उर्वरकों के अति प्रयोगके कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है। इसकी वजह से मृदा का लवणीकरण और अम्लीकरण भी बढ़ रहा है।
शहरीकरण: कुछ रिपोर्टों के अनुसार, विश्व में शहरीकरण तीव्र गति से बढ़ रहा है। भारत में भी वर्ष 2050 तक लगभग 50% आबादी के शहरी क्षेत्रों में रहने की उम्मीद है।
जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ता है संसाधनों की मांग भी बढ़ती है। अधिक संसाधनों के उपभोग के कारण भूमि आसानी से मरुस्थल में परिवर्तित हो जाती है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त तर्कों से देखा जा सकता है कि मरुस्थलीकरण और इसके प्रभाव किसी जलवायु सीमा तक सीमित नहीं हैं। इसीलिये यूएनसीसीडी मरुस्थलीकरण को वर्तमान समय की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चुनौतियों में से एक के रूप में वर्णित करता है जिसे समग्र रूप से निपटना होगा।