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प्रश्न :
प्रेमचंद के उपन्यासों में अभिव्यक्त यथार्थवाद के स्वरूप पर प्रकाश डालिये।
04 Jan, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भूमिका
- प्रेमचंद के उपन्यासों में व्यक्त यथार्थवाद
- अन्य उपन्यासों की तुलना में गोदान में व्यक्त चरम यथार्थवाद
- निष्कर्ष
हिंदी में, प्रेमचंद से पूर्व उपदेशात्मक तथा ऐतिहासिक उपन्यासों में रोमानियत के तत्त्व हावी थे। आरंभ में प्रेमचंद गांधी के आदर्शवाद से प्रभावित रहे और रचनाओं में ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की स्थापना करते रहे। किंतु गोदान में आकर ऐसा लगता है कि आदर्शवाद में उनका विश्वास खत्म हो गया है और उन्होंने यथार्थवाद को पूरी तरह अपना लिया है।
प्रेमचंद ने बाद की सभी रचनाओं में यथार्थ को उभारा है किंतु जब वे रचना की परिणिति में पहुँचते हैं तो उन पर अक्सर आदर्शवाद हावी हो जाता है। इसका मूल कारण बुद्ध, गाँधी और भारतीय परंपरा का वह विश्वास है जिसके अनुसार “बुरे से बुरे व्यक्ति में भी अच्छाई छिपी होती है, उचित परिस्थितियाँ देखकर उस अच्छाई को उभारा जा सकता है।” ‘प्रेमाश्रम' में किसानों की समस्या उठाई है ‘कर्मभूमि’ में भी किसानों का आंदोलन दिखता है।
‘सेवासदन’ में वेश्याओं की समस्या को उभारा है, जिसमें उसने वेश्याओं को समाज की मुख्यधारा में लौटाने के लिये सेवासदन’ की स्थापना का विकल्प प्रस्तुत किया है जो उनके शुरुआती आदर्शवाद से प्रभावित है किंतु ‘गोदान’ में ऐसा कुछ नहीं होता।
गोदान में ज़मींदार का शोषण ‘प्रेमाश्रम’ से भी अधिक है। किसानों की समस्याएँ ‘कर्मभूमि’ से भी अधिक हैं, धर्म और समाज की समस्याएँ ‘प्रतिज्ञा’, ‘निर्मला’ व ‘सेवासदन’ से भी अधिक हैं और महाजनी सभ्यता का कहर ‘रंगभूमि’ से भी अधिक है। होरी की मौत आदर्शवाद की समाप्ति की घोषणा है और यथार्थवाद का प्रस्थान बिंदु है। निर्मल वर्मा ने भी कहा है- “गोदान में भारतीय किसान का वह अंधकारमय (मैलनकॉलिक) भविष्य चित्रित हुआ है जहाँ भारतीय किसान का किसानत्व ही संकट में पड़ गया है।”
गोदान में यथार्थवाद की उपस्थिति उसके आरंभिक व अंतिम अंशों की तुलना से स्पष्टतः दिखाई देती है। पहले ही पृष्ठ पर होरी कहता है कि- “जब दूसरों के पाँवों तले अपनी गर्दन दबी हुयी है तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशलता है।” होरी धनिया के तीन लड़के दवा के अभाव में मर चुके हैं और उसका मन बार-बार विद्रोह भी करता है। इन कठिनतम परिस्थितियों में होरी की एक ही छोटी सी लालसा है- गाय की लालसा। प्रेमचंद बताते हैं कि “यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी।”
इस पृष्ठभूमि से कथा की शुरुआत करने वाला होरी जीवन भर कठिन संघर्ष करता है, किंतु तब भी उसे वह सब हासिल नहीं होता जो नैतिक रूप से उसे मिलना चाहिये था। उपन्यास के अंत से कुछ पहले वह पराजय बोध से भर जाता है। इन सभी उम्मीदों और आकांक्षाओं के बावजूद गोदान का अंत वह नहीं होता जो होरी चाहता है।
उपन्यास का अंत भी बेहद त्रासद प्रभाव पैदा करता है। होरी कहता है- “मेरा कहा-सुना माफ करना धनिया। अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गयी। अब तो यहाँ के रुपये क्रिया करम में जाएँगे। रो मत धनिया, अब कब तक जिलाएगी। सब दुर्दशा तो हो गयी। अब मरने दे।” इस बिंदु पर धनिया की स्थिति वैसी ही है जैसी अपने तीनों लड़कों की मौत के समय थी।
यही वह बिंदु है जहाँ प्रेमचंद्र आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अतिक्रमण करते हैं यथार्थवाद पर पहुँच जाते हैं। होरी की मृत्यु हिंदी उपन्यास परंपरा में सामाजिक यथार्थवाद के पूर्ण स्तर पर पहुँचने का महत्वपूर्ण संकेत है। प्रेमचंद्र के बाद हिंदी उपन्यास का इतिहास वस्तुतः यथार्थवाद के विभिन्न प्रारूपों का ही इतिहास है।
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