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प्रश्न :
मोहन राकेश के नाटक क्रम की समीक्षा कीजिये।
12 Dec, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भूमिका
- मोहन राकेश के विभिन्न नाटकों का संदर्भ लेते हुए उनकी समीक्षा
- निष्कर्ष
हिंदी की ‘नवनाट्य लेखन’ या ‘नयी नाटक’ परंपरा को एक व्यापक सर्जनात्मक एवं ठोस आंदोलन के रूप में स्थापित करने का श्रेय मोहन राकेश को जाता है। सामान्यतः राकेश को प्रसाद की परंपरा का नाटककार कहा जा सकता है क्योंकि उनके नाटकों में ऐतिहासिकता, नारी पात्रों की प्रधानता, भावुकता, काव्यात्मकता मौजूद है फिर भी, मोहन राकेश ने इस परंपरा को नये रूप में विकसित किया है एवं प्रसाद की परंपरा से इतर आधुनिक भाव-बोध के नाटक लिखे हैं।
मोहन राकेश की रंग-दृष्टि हिंदी रंगमंच के विकास में मील का पत्थर मानी जाती है। उन्होंने पश्चिमी रंगमंच से पृथक हिंदी के नये व मौलिक रंगमंच की खोज करने का प्रयास किया अपने पहले नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ की भूमिका में उन्होंने हिंदी के मौलिक रंगमंच के उद्देश्य की चर्चा की है। वे लिखते हैं- “हिंदी रंगमंच को हिंदी-भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक मूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा। रंगों और राशियों के हमारे विवेक को व्यक्त करना होगा। हमारे दैनंदिन जीवन के राग-रंग को प्रस्तुत करने के लिये, हमारे संवेदों और स्पन्दनों को अभिव्यक्त करने के लिये जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य के रंगमंच से कहीं भिन्न होगा।”
अपनी इसी रंग दृष्टि को मोहन राकेश ने अपने सभी नाटकों ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ तथा ‘आधे-अधूरे’ में प्रयुक्त किया है। ‘आधे-अधूरे’ हिंदी नाटक को वास्तविक अर्थ में सम-सामयिक युग का प्रतिबिंब बनाने वाला नाटक है। आषाढ़ का एक दिन में कालिदास का द्वंद्व आधुनिक मानव का भी द्वंद्व है। सभी रंग-दृष्टि मंच पर इतने अधिक सफल रहे कि इसने हिंदी रंगमंच के मुहावरे गढ़ दिये।
मोहन राकेश ने उपरोक्त नाटकों के अतिरिक्त ‘अंडे के छिलके’, ‘शायद’ नामक लघु नाटक भी लिखे हैं। राकेश ने अपने सभी नाटकों में भाग और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयत्न अधिक किया है, शिल्प की बनावट का उतना नहीं। फिर भी उनकी कोशिश रही है कि शब्दों के संयोजन से ही दृश्यत्व पैदा हो, न की अन्य उपकरणों से। यही उनके आंतरिक शिल्प की खोज है।
इनके नाटकों में रंगमंच नाटक की बनावट में ही है, कहीं से आरोपित नहीं। मोहन राकेश के नाटकों में कथा की इतनी चिंता नहीं की गई जितनी संवेदना को सही रूप में व्यक्त करने की। उन्होंने हिंदी नाटक को प्रसादीय और कृत्रिम भाषा से मुक्त कर युगीन विसंगतियों को मूर्त करने के लिये समर्थ भाषा प्रदान की। मोहन राकेश के नाटक रंगमंच की दृष्टि से अत्यंत सफल एवं प्रयोगशील हैं।
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