सरकार द्वारा तटवर्ती तथा अपतटीय क्षेत्रों में खनन तथा अन्वेषण हेतु तेल तथा गैस फर्मों को पर्यावरणीय मंजूरी लेने से छूट हेतु क्या प्रावधान किये गए हैं? भारत में इन क्षेत्रों में उत्खनन की स्थिति को स्पष्ट करते हुए इससे होने वाले पर्यावरणीय प्रभावों पर प्रकाश डालें।
30 Nov, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 3 अर्थव्यवस्था
हल करने का दृष्टिकोण:
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केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 में 16 जनवरी, 2020 को संशोधित करते हुए तेल और गैस फर्मों को अपतटीय एवं तटवर्ती उत्खनन अन्वेषणों के लिये पर्यावरणीय मंज़ूरी लेने से छूट देने हेतु एक अधिसूचना जारी की है।
स्वास्थ्य और पर्यावरण पर उनके संभावित प्रभाव के आधार पर परियोजनाओं को 'ए' और 'बी' श्रेणियों में विभाजित किया गया है। श्रेणी ‘ए’ के तहत आने वाली परियोजनाओं को MoEF&CC से पर्यावरणीय मंज़ूरी प्राप्त करनी होती है। जबकि श्रेणी ‘बी’ के तहत आने वाली परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंज़ूरी राज्य/संघ राज्य क्षेत्र पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से प्राप्त करनी होगी।
अब अपतटीय और तटवर्ती तेल एवं गैस अन्वेषण तथा अपतटीय और तटवर्ती तेल विकास एवं उत्पादन संबंधी परियोजनाओं को अलग-अलग वर्गीकृत कर दिया गया है। ध्यातव्य है कि अपतटीय और तटवर्ती तेल एवं गैस के अन्वेषण के संबंध में सभी परियोजनाओं को अब B2 श्रेणी परियोजनाओं के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
गौरतलब है कि एक हाइड्रोकार्बन ब्लॉक के रूप में अपतटीय या तटवर्ती ड्रिलिंग साइट के विकास को श्रेणी ए के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ध्यातव्य है कि इसके पहले सभी अपतटीय और तटवर्ती तेल एवं गैस अन्वेषण, विकास और उत्पादन परियोजनाओं को पहले श्रेणी ए परियोजनाओं के रूप में वर्गीकृत किया गया था जिनके लिये केंद्र सरकार से पर्यावरणीय मंज़ूरी की आवश्यकता होती थी।
भारत में अपतटीय एवं तटवर्ती उत्खनन :
विभिन्न उत्खनन विधियों का उपयोग आमतौर पर पृथ्वी से तेल और गैस जैसे प्राकृतिक संसाधनों को निकालने के लिये किया जाता है।
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक मात्र असम में ही खनिज तेल निकाला जाता था, लेकिन उसके बाद गुजरात तथा बॉम्बे हाई में खनिज तेल का उत्खनन प्रारंभ किया गया। तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग द्वारा देश के स्थलीय एवं सागरीय भागों में तेल-प्राप्ति की पर्याप्त संभावनाओं वाले बेसिनों का पता लगाया गया।
वर्तमान में भारत तेल और प्राकृतिक गैस खनन हेतु तटीय क्षेत्रों में कार्य कर रहा है। इसके बावजूद भी भारत अभी भी इन ऊर्जा संसाधनों के काफी हद तक विदेशी आयात पर निर्भर है। इन क्षेत्रों में उत्खनन का निहितार्थ है कि वैश्विक परिदृश्य में कुछ घटनाओं के कारण तेल के मूल्य प्रभावित होते हैं जिससे भारत के भुगतान खाते पर भी प्रभाव पड़ता है साथ ही आर्थिक वृद्धि दर भी प्रभावित होती है।
भारत की आयातित कच्चे तेल पर निर्भरता वर्ष 2014-15 के 78.3 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2018-19 में 83.8 प्रतिशत हो गई है।
ईरान से कच्चे तेल का आयात कम हो रहा है, हालाँकि यह देश भारत का प्रमुख तेल निर्यातक बना हुआ है। ध्यातव्य है कि नवंबर 2018 और नवंबर 2019 के बीच ईरान से कच्चे तेल के आयात में लगभग 89 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है।
इस प्रकार के कदम के निहितार्थ देखें तो अमेरिका-ईरान संघर्ष को देखते हुए देश के तेल एवं गैस की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में यह महत्त्वपूर्ण कदम है। इस कदम से तेल आयात पर राजकोषीय बजट के खर्च को कम किया जा सकता है। इसके अलावा पश्चिम एशिया की अस्थिर प्रकृति और अमेरिका द्वारा ईरान पर प्रतिबंधों के कारण, भारत तेल आपूर्ति के लिये अन्य विकल्प की खोज में है। इस अधिसूचना को घरेलू ज़रूरतों को पूरा करने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर जारी किया गया है।
उत्खनन के पर्यावरणीय प्रभाव:
बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं में तेल और गैस की खोज सबसे जटिल परियोजना मानी जाती है। इसके परिणाम सिर्फ स्थानीय परिवेश तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि वैश्विक हैं। इस तरह की परियोजनाओं से द्वीपों, प्रमुख मछली प्रजनन क्षेत्रों, निकटतम तटीय शहरों के साथ-साथ प्रवासी मार्गों के लिये एक बड़ा खतरा पैदा होता है।
इसके अतिरिक्त समुद्री खनन से समुद्री जैव-विविधता को भी हानि होती है, ध्यातव्य है कि उत्खनन के कारण तेल समुद्री जल में फैल सकता है जिससे समुद्री जीवों सहित वनस्पतियों को नुकसान होगा। तेल फैलने से तटीय के साथ स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र को भी खतरा हो सकता है।
भारत का तटीय उत्खनन पश्चिमी घाट के आसपास होता है जो पर्यावरण और जैव-विविधता की दृष्टि से काफी संवेदनशील है यह वैश्विक स्तर पर घोषित एक हॉटस्पॉट है। इसके अतिरिक्त पश्चिमी घाट के क्षेत्र में कई प्रवाल भित्तियां भी पाई जाती हैं इन पर इस प्रकार की परियोजनाओं का विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
वर्तमान में वैश्विक समुदाय द्वारा सतत और संपोषणीय विकास की अवधारणा पर ज़ोर दिया जा रहा है जिसके अंतर्गत प्राकृतिक संसाधनों का न्यूनतम प्रयोग करते हुए अधिकतम विकास करना है। इसलिये इस प्रकार के निर्णय अल्पकालिक दृष्टि से तो लाभदायक हो सकते हैं लेकिन दीर्घकालिक स्तर पर भारत को अपनी ऊर्जा नीतियों के निर्माण हेतु नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों पर निर्भरता बढ़ानी होगी। इसलिये भारत को अपनी पर्यावरणीय और संसाधनों से संबंधी प्राथमिकताओं को तय करते हुए एक दीर्घकालिक नीति निर्माण के साथ नवीकरणीय ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ानी चाहिये जिससे ऊर्जा संबंधी समस्याओं का स्थायी समाधान किया जा सके।