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प्रश्न :
वैदिक समाज के समतावादी स्वरूप की तुलना में उत्तर वैदिक काल में होने वाले परिवर्तनों पर प्रकाश डालें।
25 Nov, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भूमिका
- कथन के पक्ष में तर्क
- उदाहरण
- निष्कर्ष
पूर्व वैदिक समाज का तात्पर्य ऋग्वैदिक समाज से है जहाँ समाज समतामूलक था। ऋग्वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था सहयोग एवं सहभागिता पर आधारित थी। इस समय समाज पितृ सत्तात्मक होने के बावजूद स्त्री-पुरुष विभेद नहीं था, पुत्रियों को पुत्रों के समान माना जाता था तथा उनकी शिक्षा एवं अधिकार में भी समानता थी, जबकि उत्तर वैदिक काल तक आते-आते समाज में असमानताएँ उत्पन्न होने लगी थी।
ऋग्वैदिक समाज का आधार परिवार होता था जिसमें पिता या बड़ा भाई परिवार का स्वामी होता था। पिता परिवार के दुःख-सुख का पूरा ध्यान रखता था। ऋग्वैदिक समाज प्रारंभ में वर्ग विभेद से रहित था। सभी लोगों की समान सामाजिक प्रतिष्ठा थी। इस समय के सभी लोगों को आर्य कहा जाता था। ऋग्वैदिक काल में वर्ण पद रंग के अर्थ में प्रयोग किया गया किंतु कहीं-कहीं यह व्यवसाय चयन के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है।
ऋग्वैदिक समाज के प्रारंभ में तीन वर्णों का उल्लेख किया गया है जिन्हें ब्रह्मा, क्षत्र, विशु कहा जाता था। कालांतर में एक चौथा वर्ण शूद्र नाम से समाज में उत्पन्न हो गया। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में पहली बार शूद्र वर्ण का उल्लेख मिलता है। पुरुष सूक्त में चारों वर्णों की उत्पत्ति एक विराट पुरुष से बताई गई। अभी तक वर्ण जन्मजात न होकर व्यवसाय पर आधारित था जैसा कि ऋग्वेद में एक ऋषि कहता है कि “मैं कवि हूँ मेरे पिता वैद्य हैं तथा मेरी माता अन्न पीसती है।” अतः कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी जो कालांतर में सकीर्ण स्वरूप में प्रकट होती है।
उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक सामाजिक संरचना टूटने लगती है। अब वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर निर्धारित की जाने लगी। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था ने सामाजिक जटिलता को बढ़ावा दिया। इस जटिलतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था ने आपसी विभेद को उत्पन्न किया तथा समाज को दो वर्गों 'सुविधा भोगी' एवं 'सुविधा विहीन' में विभाजित कर दिया। सुविधा भोगी वर्ग ने सामाजिक संरचना का निर्माण इस प्रकार किया कि उत्पादन अधिशेष दो उच्च वर्गों के पक्ष में बना रह सके।
उत्तर वैदिक काल में चतुर्वर्ण व्यवस्था स्थापित हो गई। इसमें ब्राह्मण एवं क्षत्रिय विशेषाधिकार प्राप्त वर्ण के रूप में स्थापित हो गए। समाज में सर्वश्रेष्ठ स्थान ब्राह्मण का था। ब्राह्मण ने यज्ञ एवं मंत्रोच्चारण की प्रविधि द्वारा अपने आप को उच्च स्थान पर स्थापित कर लिया। ब्राह्मण के पश्चात् क्षत्रियों का स्थान आता था। इस काल में जब युद्धास्त्रों के रूप में लोहे के उपकरणों को प्रोत्साहन मिला तो क्षत्रियों की स्थिति अधिक मज़बूत हो गई और सुरक्षा के नाम पर इस वर्ण ने उत्पादन अधिशेष के एक भाग पर अपना दावा किया।
इस समय तीसरा वर्ग वैश्य वर्ग था जो एकमात्र उत्पादक तथा करदाता के रूप में विद्यमान था जिसे शतपथ ब्राह्मण में अनस्यबलिकृता कहा गया है। इन तीनों वर्णों को द्विज की श्रेणी में रखा गया, इन तीनों वर्णों को उपनयन संस्कार का अधिकार दिया गया था। इन तीनों वर्णों से पृथक एक वर्ण शूद्र था इसका दायित्व उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा करना था। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में वर्ण विभाजन को धार्मिक आनुष्ठानिक आधार प्रदान करने की कोशिश की गई।
उत्तर वैदिक काल में तुलनात्मक रूप से स्त्रियों की सामाजिक दशा में गिरावट आई, अब सभा एवं समिति जैसी सामाजिक संस्थाओं में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया था। उत्तर वैदिक ग्रंथ एतरेव ब्राह्मण में पुत्रों को परिवार का रक्षक तथा पुत्रियों को दुःख का कारण माना गया है। इसी प्रकार मैत्रेयी संहिता में नारी को धूत एवं मदिरा के साथ-साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिना गया। तैत्तिरीय संहिता में नारी को शूद्र से भी नीच माना गया है। सामाजिक जीवन में स्त्रियों का प्रवेश क्रमशः कम हो गया। नारी के धार्मिक अधिकारों में भी अंतर आने लगा।
उत्तर वैदिककालीन समाज में गोत्र की अवधारणा का विकास हुआ जो सामाजिक परिवर्तन का एक पहलू है। गोत्र शब्द की उत्पत्ति गोष्ठ शब्द से हुई अर्थात् जिनकी गायें एक साथ बाँधी जाती थीं वे एक गोष्ठ के माने जाते थे, फिर एक गोष्ठ के लोग समान रक्त संबंध के माने जाने लगे और यहीं से गोत्र की परिकल्पना विकसित होती चली गई तथा समतामूलक समाज का विभाजन होता चला गया जो अपने जटिल स्वरूप में आज परिलक्षित होता है।
निष्कर्षतः पूर्व वैदिक समाज की तुलना में उत्तर वैदिक काल के समाज में आए परिवर्तनों के कारण धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन थे जिन्होंने समाज के समतामूलक स्वरूप को समय एवं आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित कर दिया।
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