हिंदी व्याकरण लेखन की परंपरा में कामता प्रसाद गुरू के कार्य की समीक्षा कीजिये।
20 Nov, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
हल करने का दृष्टिकोण:
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भारत में व्याकरण लेखन की समृद्ध परंपरा रही है। हिंदी व्याकरण रचना के आरंभिक प्रयास 18वीं और 19वीं शताब्दी में हुए। वहीं दूसरा चरण 1870-1900 ई. के बीच दिखाई पड़ता है। हिंदी व्याकरण लेखन की पंरपरा का तीसरा चरण 1900 ई. के आसपास शुरू हुआ। इस समय ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना हो चुकी थी और ‘सरस्वती’ पत्रिका में व्याकरण को व्यवस्थित रूप देने के प्रयास में लेख लिखे जा रहे थे। द्विवेदी जी ने ‘भाषा और व्याकरण’ लेख में हिंदी के व्यवस्थित रूप को लेकर चिंता जाहिर की।
इसी समय 1908 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में ही श्री कामताप्रसाद गुरू का एक लेख छपा- ‘हिंदी की हीनता’, जिसमें उन्होंने हिंदी की व्याकरण का विकास न हो पाने की बात कही। अंततः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और महावराव सप्रे गुरू को यह कार्य सौंपा तथा दो वर्षों के गहन अनुसंधान के बाद यह पुस्तक वर्ष 1918 में तैयार हुई तथा एक समिति द्वारा मूल्यांकन व संशोधन के बाद वर्ष 1919 में इसको प्रकाशित किया गया।
इनके द्वारा लिखित हिंदी व्याकरण की बड़ी विशेषता यह है कि इसमें लोक-प्रचलित भाषा के आधार पर व्याकरणिक नियम व्यवस्थित किये गए हैं न कि अपनी ओर से कोई नियम थोपे गए हैं। इन्होंने अरबी-फारसी शब्दों के लिये राजा शिवप्रसाद सितारें हिंद के ‘हिंदी व्याकरण’ को आधार बनाया, शैली के तौर पर ‘दामले’ द्वारा रचित ‘मराठी व्याकरण’ को आधार बनाया तथा अंग्रेजी में लिखे गए व्याकरणों में से प्लैट्स कृत ‘हिंदुस्तानी ग्रामर’ को आधार माना।
विद्यार्थियों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इसके तीन विभिन्न संस्करण तैयार किये गए - प्रथम, मध्य और संक्षिप्त। हिंदी व्याकरण क्रमशः आरंभिक, माध्यमिक और उच्च कक्षाओं के लिये तैयार किया गया। अब पहली बार हिंदी का एक व्यवस्थित व्याकरण तैयार हो चुका था।
पंडित कामताप्रसाद गुरू द्वारा लिखित व्याकरण से कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। बी.ए. और एम.ए. के पाठ्यक्रम हिंदी भाषा में शुरु हुए तथा काशी व अन्य विश्विद्यालयों में हिंदी विभागों की स्थापना हुई। साथ ही हिंदी में अनुसंधान को बढ़ावा मिला, जिसका परिणाम था कि गैर हिंदी प्रदेशों में हिंदी सीखने के इच्छुक व्यक्तियों हेतु भी समाधान मिल गया।
पंडित जी ने व्याकरण संबंधी कई समस्याएँ दूर कर दी थीं, किंतु उसके बाद मानकीकरण की प्रक्रिया चलने के कारण हिंदी व्याकरण को आसान बनाने की ज़रूरत थी, जिसका समाधान आगे चलकर किशोरीदास वाजपेयी द्वारा किया गया।