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प्रश्न :
पूर्वी हिंदी की किन्ही दो बोलियों की शब्द शास्त्रीय विशेषताएँ बताइये।
07 Nov, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भूमिका
- पूर्वी हिंदी की किन्ही दो बोलियों (बघेली एवं छत्तीसगढ़ी) की शब्द शास्त्रीय विशेषताएँ
- निष्कर्ष
प्राचीन काल में जिस क्षेत्र को उत्तरी कोसल तथा दक्षिणी कोसल कहा जाता था, वही क्षेत्र पूर्वी हिंदी का क्षेत्र है, जो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ तक विस्तृत है। सीमाओं के निर्धारण की बात की जाए तो ये कानपुर से मिर्ज़ापुर तथा लखीमपुर से बस्तर तक विस्तृत है। इसके अंतर्गत तीन बोलियाँ शामिल की जाती हैं- अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी।
दो बोलियों की शब्दशास्त्रीय विशेषताएँ निम्नलिखित है-
1. बघेलीः बघेली बघेलखंड में बोली जाने वाली बोली है। इसका केंद्र रीवा है तथा उसके अतिरिक्त यह जबलपुर, मंडला तथा बालाघाट आदि ज़िलों में बोली जाती है। अवधी और बघेली में इतनी अधिक समानताएँ हैं कि कुछ विद्धान उसे अवधी की उपबोली ही मानते हैं, किंतु डॉ. जॉर्ज गियर्सन तथा अन्य कुछ विद्वानों ने बघेली को एक अलग बोली के रूप में मान्यता प्रदान की है। इसकी भाषिक, शब्द शास्त्रीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(क) ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ का प्रयोग मिलता है,
(ख) ‘ए’ और ‘ओ’ ध्वनियों का उच्चारण करते हुए बघेली में ‘य’ और ‘वे’ ध्वनियों का मिश्रण करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है-
खेत > ख्यात
(ग) बघेली में निम्न सर्वनाम मिलते हैं- म्वाँ, मोहि, त्वा, तोही, बहि तथा यहि।
(घ) बघेली में कर्म और संप्रदान के लिये ‘क’ तथा करण व अपादान के लिये ‘कार’ परसर्गों का प्रयोग मिलता है।
2. छत्तीसगढ़ीः यह वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य की बोली है। जिसे कालांतर में दक्षिण कोसल भी कहा गया है। इसके क्षेत्र के अंतर्गत सरगुजा, बिलासपुर, रायपुर, रायगढ़ दुर्ग तथा राजनाँद गाँव ज़िले आते हैं। यह बोली आमतौर पर अवधी के समान ही है। इसकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(क) उच्चारण में महाप्राणीकरण इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषता है- कचहरी > कछेरी, दोड़ > धौड़, जन > झन
(ख) ‘स’ के स्थान पर ‘छ’ ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ तथा ‘ब’ या ‘व’ के स्थान पर ‘ज’ करने की प्रवृत्ति मिलती है- सीता > छीता, बालक > बारक
(ग) ‘ष’ तथा ‘श’ केा ‘स’ के रूप में बोला जाता है-
भाषा > भासा, दोष > दोस
(घ) एकवचन से बहुवचन बनाने के लिये प्रायः ‘मन’ प्रत्यय जोड़ा जाता जैसे- ‘हममन’ (हमलोग)।
(ड़) बहुवचन के लिये ‘न’ का प्रयोग भी किया जाता है जैसे- ‘लरिकन’।
(च) कर्म, संप्रदान के लिये ‘ल’ परसर्ग तथा करण, अपादान के लिये ‘ल’ परसर्ग का प्रयोग विशिष्ट है।
(छ) क्रिया के साथ आने वाले ‘त’ और ‘ह’ को जोड़कर ‘थ’ बनाने की प्रवृत्ति भी मिलती है’
करते हैं > करतथन
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