खुसरों एवं उनकी कविता पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
06 Nov, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
हल करने का दृष्टिकोण:
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खुसरो खड़ी बोली, हिंदी और उर्दू के तो पहले कवि माने ही जाते हैं, ब्रजभाषा में भी इन्होंने कुछ अत्यंत मौलिक व साहसिक प्रयोग किये हैं। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो उन्होंने फारसी व हिंदी भाषा का अद्भुत समन्वय भी कर दिया है।
आचार्य शुक्ल के अनुसार अमीर खुसरों की भाषा मुख्यतः दो प्रकार की है। पहले प्रकार की भाषा में ब्रजभाषा की झलक के साथ ठेठ खड़ी बोली दिखाई पड़ती है। यह मुख्यतः ‘पहेलियों’ व ‘सुखनों’ में दिखती है तथा गौण रूप से ‘मुकरियो’ में भी झलकती है। दूसरी शैली वह है जिसमें ब्रजभाषा अपने आरंभिक ठेठ रूप में आई है।
ब्रजभाषाः “मेरा मोसे सिंगार करावत, आगे बैइ के मान बढ़ावत वासे चिक्कन ना कोऊ दीसा, ऐ सखि साजना। ना सखि सीसा।।”
खड़ी बोलीः “एक थाल मोती से भरा, सबके सिर ओंधा धरा। चारों और वह थाल फिरे, मोती उससे एक न गिरे।।”
खड़ी बोली व ब्रजभाषा का “खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। मिश्रित रूप तन मेरो मन पीऊ को, दोउ भए एक रंग।।”
अमीर खुसरों ने भाषा के स्तर पर कुछ अद्भुत प्रयोग भी किये हैं जिनमें से एक प्रयोग में उन्होंने शुद्ध फारसी व शुद्ध ब्रजभाषा को एक ही कविता में साथ-साथ पिरो दिया है। यह प्रयोग बोधगम्यता की दृष्टि से चाहे कमज़ोर हो किंतु भाषायी संश्लेषण की दृष्टि से अनूठा है-
“जे हाल मिसकीं मकुन तगाफुल, दुराय नैना बनाया बतियाँ। कि ताबे हिज्राँ न दारम ऐ जाँ, न लेहु काहे लगाया छतियाँ।।”
खुसरों जिस समय के कवि हैं, उस समय तक साहित्यिक भाषा के रूप में न तो खड़ी बोली स्थापित हुई थी, न ही ब्रजभाषा। पिंगल शैली के तौर पर ब्रजभाषा के कुछ आरंभिक सूत्र रासों साहित्य में ज़रूर दिखाई देते हैं किंतु खुसरों की ब्रजभाषा भक्तिकाल व रीतिकाल की ब्रजभाषा के अधिक निकट है।
आचार्य शुक्ल ने सूर की ब्रजभाषा पर आश्चर्य जताते हुए कहा है कि यह विश्वास करना कठिन प्रतीत होता है कि सूर ने बिना किसी साहित्यिक परंपरा के एक चलती हुई लोकभाषा को एक झटके में महान साहित्यिक भाषा बना दिया। ध्यान से देखें तो सूर से कुछ मिलती-जुलती सी भाषा खुसरों के काव्य में दिखती है।
खुसरों की कविता भाषा के स्तर पर आतंक पैदा नहीं करती बल्कि बेहद सहजता के साथ पाठक श्रोता को बोधगम्य प्रतीत होती है। उनकी कविता मानसिक चित्रों का निर्माण करती है। आचार्य शुक्ल ने खुसरों की भाषा की एक ओर विशेषता ‘उक्तिवैचित्र’ को माना है, जिसका अर्थ है कि वे सीधी बात को भी रोचक तरीके से कहने की क्षमता रखते थे।