‘भारत-दुर्दशा’ प्रायः कथाविहीन, घटनाविहीन नाट्य-रचना है। फिर भी इसके मंचन की संभावनाएँ कम नहीं हैं।’ अभिनेयता की दृष्टि से विवेचना कीजिये।
29 Oct, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
हल करने का दृष्टिकोण:
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पारंपरिक दृष्टि से नाटक के दो मुख्य भेद स्वीकार किये गए हैं- रूपक और उपरूपक। डॉ. बच्चन सिंह ने इस नाटक को ‘अन्यायदेशिक नाटक’ कहा है, जिसका अर्थ है कि वह नाटक जिसमें विभिन्न मनोभावों की चरित्रों के माध्यम से प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति की गई हो। भारत दुर्दशा में कोई एक कथा या घटना नहीं है बल्कि यह एक समीक्षात्मक शैली में लिखा गया नाटक है। जिसमें समस्या के साथ-साथ समाधान की भी किरण दिखाई गई है।
नाटक की पूर्ण सार्थकता उसके सफलतापूर्वक मंचित होने में ही है। नाटक की सफल अभिनेयता इस बात से निर्धारित की जा सकती है कि उमसें दृश्य विधान, अभिनय संकेत, वेश-भूषा, ध्वनि तथा प्रकाश जैसी व्यवस्थाओं के संकेत पर्याप्त मात्रा में दिये गए हैं अथवा नहीं। इसके अतिरिक्त उसकी भाषा, चरित्र योजना, कथानक का विकास जैसे तत्त्व सफल मंचन हेतु सहायक हो पाते है या नहीं।
भारत दुर्दशा का दृश्य विधान सरल तथा प्रभावशाली है। छह अंकों के इस नाटक में छह ही दृश्य हैं, अतः दृश्यों की संख्या इतनी अधिक नहीं कि निर्देशक के लिये बार-बार दृश्य परिवर्तन की समस्या उठ खड़ी हो। दृश्य विधान सरल है। उदाहरण के लिये पहले अंक में वीथी का दृश्य है। दूसरे अंक में शमशान, टूटे-फूटे मंदिर, बिखरी हुई अस्थियाँ और कौए, सियार व कुत्ते के दृश्य हैं। स्पष्ट है कि कुछ पर्दों व कुछ वस्तुओं के संग्रह से यह दृश्य योजना साकार हो सकती है।
नाटककार ने मंचन की सहजता हेतु अपनी ओर से कई प्रयास किये हैं। सबसे पहले अभिनय संकेतो को देखा जा सकता है। भारतीय नाट्य परंपरा में रंग संकेत देने की परंपरा कम रही है। किंतु भारतेंदु ने कम से कम चार-पाँच प्रसंगों में अभिनय संकेत दिये है। उदाहरण के लिये-
आलस्य- “मोटा आदमी जम्हाई लेता हुआ, धीरे-धीरे आता है।”
भारतेंदु के समय मंचीय विधान पर्दे पर आधारित था। भारतेंदु की कल्पनाशीलता का ही प्रमाण है कि उन्होंने एक स्थान पर प्रकाश व्यवस्था का सक्रिय प्रयोग किया है। नाटक के प्रभावशाली मंचन में ध्वनि तत्त्व के प्रयोग की भूमिका प्रबल होती है। पार्श्व ध्वनियों के प्रयोग की विशेष परंपरा तो भारतेंदु के सामने नहीं थी। किंतु सीमित रूप से उन्होंने इसका भी प्रयोग किया है।
इन सभी तत्त्वों के साथ वेश-भूषा के प्रति भी भारतेंदु ने ध्यान दिया है। उन्होंने विभिन्न चरित्रों की वेश-भूषा का स्पष्ट अंकन किया है। उदाहरण के लिये-
भारत- ‘फटे कपड़े पहिने, सिर पर अर्द्ध किरीट, हाथ में टेकने की छड़ी, शिथिल अंग’।
हालाँकि गीतों व चरित्रों की अधिकता और उनकी प्रतीकात्मकता एक समस्या है। भाषा योजना में कहीं-कहीं लंबे स्वागत संवाद भाषण बन गए हैं किंतु इन सीमाओं के बावजूद यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि भारतेंदु के जीवनकाल में ही लखनऊ, बनारस और बलिया आदि स्थानों पर इस नाटक का सफल मंचन किया जा चुका है और वर्तमान में भी इसका मंचन जारी है।