हाल ही में चर्चा में रही सिंगापुर अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता संधि से आप क्या समझते हैं? अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता संधि की आवश्यकता के बिंदुओं को समझाते हुए इससे होने वाले लाभों तथा लागू करने में आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालें।
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भूमिका
- सिंगापुर अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता संधि
- लाभ
- चुनौतियाँ
- निष्कर्ष
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हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कॉर्पोरेट विवादों के समाधान हेतु सिंगापुर अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता संधि को लागू कर दिया गया है। यह संधि हस्ताक्षरकर्ता देशों के बीच आपसी व्यावसायिक और बड़े कॉरपोरेट विवादों को निपटाने में मध्यस्थता का प्रभावी ढाँचा उपलब्ध कराएगी।
इसे सिंगापुर कन्वेंशन ऑन मिडिएशन या ‘अंतर्राष्ट्रीय समाधान समझौतों पर संयुक्त राष्ट्र संधि’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका उद्देश्य ऐसे वैश्विक ढाँचे की स्थापना करना है जिससे व्यवसायों को अदालत में जाने के बजाय मध्यस्थता के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने का निपटारा किया जा सके। उल्लेखनीय है कि दिसंबर 2020 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतर्राष्ट्रीय समाधान समझौतों पर संयुक्त राष्ट्र संधि को अपनाया गया था। इस संधि को 7 अगस्त, 2019 को सिंगापुर में हस्ताक्षर के लिये अधिकृत किया गया और इसे 12 सितंबर, 2020 को लागू कर दिया गया है।
अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता संधि की आवश्यकता क्यों?
- वर्तमान में वैश्वीकरण के दौर में किसी देश या निजी कंपनी के लिये अन्य देशों में किये गए निवेश या समझौते में किसी विवाद का समाधान एक बड़ी चुनौती है।
- किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि के अभाव में यदि मध्यस्थता का मामलों में किसी पक्ष द्वारा समझौते का उल्लंघन किया जाता है तो अदालती अथवा सुलह की प्रक्रिया को पुनः शुरू करना पड़ सकता है।
- इस संधि के तहत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किन्हीं दो पक्षों (ऐसे देशों से जो इस संधि का हिस्सा हैं) के बीच सुलह की पुष्टि होने पर उसे एक न्यायिक फैसले के तरह ही लागू किया जाएगा।
- वर्तमान में वैश्वीकरण के दौर में अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखला और अर्थव्यवस्था के सतत् विकास हेतु देशों के के बीच व्यापार तथा अन्य साझेदारियों में पारदर्शिता का होना बहुत ही आवश्यक है।
- कॉरपोरेट विवादों में न्यायिक अथवा पंचाट के फैसलों से दो पक्षों के बीच तनाव/द्वेष बढ़ जाता है जिसका सीधा प्रभाव भविष्य की व्यापारिक साझेदारियों या समझौतों पर पड़ता है, जबकि मध्यस्थता में दोनों पक्षों में आपसी सहमति से ऐसी स्थिति से बचा जा सकता है।
संधि के लाभ:
- इस संधि के माध्यम से वैश्विक स्तर पर संधि हस्ताक्षरकर्ता देशों के बीच कॉरपोरेट विवादों को निपटाने हेतु मध्यस्थता हेतु एक प्रभावी ढाँचा उपलब्ध होगा।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता से बचते हुए आपसी सहमति से कॉरपोरेट विवादों को निपटाने में सहायता प्राप्त होगी।
- संधि के लागू होने से विदेशी निवेशकों में वैकल्पिक विवाद समाधान की अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के संदर्भ में भारत की प्रतिबद्धता के प्रति विश्वास बढ़ेगा, जिससे देश में विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में वृद्धि होगी।
- वर्तमान में जब विश्वभर में एक बार पुनः नि-वैश्विकरण की भावना में वृद्धि देखने को मिली है और कई महत्त्वपूर्ण बहुपक्षीय मंचों (जैसे- विश्व स्वास्थ्य संगठन या विश्व व्यापार संगठन आदि) की भूमिका पर प्रश्न भी उठे हैं, ऐसे समय में इस संधि के माध्यम से वैश्विक बहुपक्षीय प्रणाली को एक बार पुनः स्थापित करने में भी सहायता प्राप्त होगी।
- मध्यस्थता के माध्यम से विवादों के समाधान से सतत विकास हेतु शांतिपूर्ण और समावेशी समाज की स्थापना के प्रयासों को बढ़ावा मिलेगा।
चुनौतियाँ:
- कंपनियों के बीच विवाद बढ़ने की स्थिति में अदालती कार्रवाई को पहले विकल्प के रूप में देखा जाता है, जिसका निवेश और अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है।
- विश्व के अलग-अलग देशों के न्यायिक व्यवस्था में भारी अंतर है इसके साथ ही विश्व के कई देशों में मध्यस्थता को मान्यता नहीं दी जाती, ऐसे में यह संधि कुछ ही देशों के बीच पूर्ण रूप से लागू हो सकेगी।
- अंतर्राष्ट्रीय फैसलों या मध्यस्थता के मामलों में भारतीय न्यायालयों का हस्तक्षेप इस दिशा में एक बड़ी चुनौती है।
- विश्व बैंक द्वारा जारी डूइंग बिज़नेस-2020 अध्ययन के अनुसार, किसी अनुबंध को लागू करने भारत का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा है साथ ही भारत के स्थानीय प्राथमिक न्यायालयों में किसी कंपनी को वाणिज्यिक विवाद सुलझाने में 1,445 दिन का समय लग जाता है।
निष्कर्षतः भारत सरकार द्वारा कंपनियों को कॉरपोरेट विवाद के मामलों में मध्यस्थता के विकल्प को अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। वर्तमान में इस संधि में शामिल अधिकांश देश विकासशील देशों की श्रेणी के हैं ऐसे में अन्य बड़ी अर्थव्यवस्था वाले विकसित देशों (जैसे- यूनाइटेड किंगडम, जापान, यूरोपीय संघ आदि) के शामिल होने से इस संधि को अधिक बल मिलेगा और इसका महत्त्व भी बढ़ेगा।