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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    सिद्ध नाथ साहित्य में प्रयुक्त खड़ी बोली या प्रारंभिक रूप।

    16 Oct, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भूमिका
    • सिद्ध-नाथ साहित्य में खड़ी बोली का स्वरूप
    • निष्कर्ष

    सिद्ध साहित्य सिद्ध संप्रदाय से संबंधित साहित्य है। तांक्षिक क्रियाओं, मंत्रों द्वारा सिद्धि चाहने के कारण ये लोग सिद्ध कहलाये। नाथ साहित्य का संबंध सिद्ध संप्रदाय से ही विकसित किंतु उसके विरोधी नाथ संप्रदाय से है। 

    सिद्धों ने मध्यप्रदेश के पूर्वी भागों में आठवीं-नौवी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक दोहेां तक चर्थापदों के रूप में जनभाषा के माध्यम से साहित्य की रचना की जिस पर अर्द्धमगधी अपभ्रंश व आरंभिक खड़ी बोली की प्रवृत्तियों का स्पष्ट असर दिखाई देता है। उदाहरण के लिये सरहपा की रचना के दृष्टव्य हैं-

    “घर की बाइसी दीवा जाली। कोणहिं बइसी घंडा चाली।”
    “पंडिअ सअल सत्य बक्खाणअं देहहिं बुद्ध बसंत ण जाणआ”

    उपरोक्त उदाहरण में बाइसी, दीवा, जाली, चाली आदि शब्द ईकारांत या आकारांत हैं, साथ ही ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का प्रयोग आदि आरंभिक खड़ी बोली की ही विशेषता है।

    नाथों ने अपनी मान्यताओं को प्रचारित करने हेतु रचनाएँ लिखीं। घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण खड़ी बोली के साथ अन्य हिंदी बोलियों का भी इस पर व्यापक असर दिखाई पड़ता है। कहीं-कहीं तो इनकी भाषा आर्श्चजनक रूप से वर्तमानकालीन खड़ी बोली के निकट दिखाई पडती है।

    “नौ लाख पातरि आगे नाचे पीछे सहज अखाड़ा
    ऐसौ मन लै जोगी खेलै तब अंतरि बसै भंडारा।”

    नाथ साहित्य में कुछ उदाहरण ऐसे भी है जिनमें खड़ी बोली की कुछ प्रवृत्तियाँ तो दिखती है किंतु बेहद सीमित मात्रा में ही। उदाहरण के लिये-

    “जाणि के अजाणि होय बात तू लें पछाणि
    चेले हो दूआ लाभ हाइगा गुरू होइयों आणि।”

    इस प्रकार स्पष्ट है कि सिद्ध नाथ साहित्य में खड़ी बोली के प्रारंभिक रूप पूरी स्पष्टता के साथ विद्यमान है।

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