किसी भी लोकतांत्रिक देश की न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता व न्याय तक पहुँच प्रत्येक नागरिक का अधिकार है। न्यायिक पारदर्शिता क्यों आवश्यक है? इसे सुनिश्चित करने में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है? चर्चा करें।
29 Sep, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था
हल करने का दृष्टिकोण- • भूमिका • न्यायिक पारदर्शिता से आप क्या समझतें हैं? • इसके समक्ष चुनौतियां क्या है? • निष्कर्ष |
किसी भी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में जवाबदेही और पारदर्शिता बुनियादी मूल्य हैं। सरकार हो या नौकरशाही, राजनीतिक दल हो या न्यायिक तंत्र सभी से आशा की जाती है कि वे लोगों के प्रति जवाबदेह और पारदर्शी होंगे। न्यायिक पारदर्शिता के अंतर्गत न्यायिक नियुक्तियों में खुलापन, न्यायिक दस्तावेज़ों तक जनता की सुगम पहुँच तथा जनता के प्रति न्यायालय का उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार इत्यादि शामिल हैं।
ऐसा माना जाता है कि राज्य के शक्तिशाली अंगों के रूप में किसी भी अन्य निकाय की तरह न्यायालयों का कामकाज भी पारदर्शी और सार्वजनिक जाँच के लिये खुला होना चाहिये। न्यायालयों की वैधता सत्यापित तथ्यों और कानून के सिद्धांतों के आधार पर उचित आदेश प्रदान करने की उनकी क्षमता पर आधारित है।
न्यायिक पारदर्शिता क्यों आवश्यक?
चुनौतियां-
प्रसिद्ध दार्शनिक जेरेमी बेंथम ने खुले न्यायालयों के महत्त्व को व्यक्त करते हुए कहा है कि “गोपनीयता के अंधेरे में, तमाम तरह के क्षुद्र स्वार्थ और बुरी नीयतें खुलकर सामने आ जाती हैं। प्रचार-प्रसार के माध्यम से ही न्यायिक अन्याय पर अंकुश लग सकता है। जहाँ सूचना का प्रसार न हो, वहाँ न्याय भी नहीं हो सकता है। प्रचार ही न्याय की आत्मा है।”
पिछले दशक में, खुले न्यायालयों के सिद्धांत पर न्यायपालिका की ओर से ही सबसे अधिक हमले हुए हैं। यह कई तरह से होता है जैसे- सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में आम आदमी के प्रवेश को सुरक्षा का हवाला देकर रोक दिया जाता है, संवेदनशील मामलों में न्यायिक कार्यवाही की रिपोर्टिंग से रोकने वाले आदेश, सरकार से सीलबंद लिफाफे में जवाब मंज़ूर करना, न्यायपालिका को RTI अधिनियम के दायरे से बाहर रखना इत्यादि।
इसके अतिरिक्त भारत उन चुनिंदा देशों में से एक है, जहाँ न्यायाधीशों को कॉलेजियम तंत्र के माध्यम से न्यायिक नियुक्तियों पर अंतिम अधिकार प्राप्त है। कॉलेजियम तंत्र अपने आप में एक अति गोपनीय व्यवस्था है।
न्यायिक नियुक्तियाँ अक्सर तदर्थ और मनमाने तरीके से की जाती हैं ऐसा मानने वालों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है।
इसके अलावा जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता नहीं होने और इनमें परिवारवाद को वरीयता देने का मुद्दा समय-समय पर चर्चा में रहा है। इसमें जब जज बनाने के लिये अधिवक्ताओं के नाम प्रस्तावित किये जाते हैं तो किसी भी स्तर पर किसी से कोई राय नहीं ली जाती। इनमें जिन लोगों का नाम प्रस्तावित किया जाता है उनमें से कई पूर्व न्यायाधीशों के परिवार से होते हैं या उनके संबंधी होते हैं।
निष्कर्षतः न्यायिक उत्तरदायित्व तय करने के लिये कानून बनाने की आवश्यकता है ताकि न्यायिक प्रणाली पर लोगों का भरोसा बना रहे और न्यायिक भ्रष्टाचार की प्रभावी जाँच हो सके।