राम मंदिर भूमि पूजन में प्रधानमंत्री की उपस्थिति ने धर्मनिरपेक्षता पर बहस को पुनर्जीवित कर दिया है। धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? धर्मनिरपेक्षता के भारतीय व पश्चिमी मॉडल का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
उत्तर :
भूमिका
• धर्मनिरपेक्षता क्या है?
• धर्मनिरपेक्षता के भारतीय व पश्चिमी मॉडल की तुलना
• आलोचनात्मक मूल्यांकन
• निष्कर्ष
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धर्मनिरपेक्षता एक जटिल तथा गत्यात्मक अवधारणा है। इस अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम यूरोप में किया गया। यह एक ऐसी विचारधारा है जिसमें धर्म और धर्म से संबंधित विचारों को इहलोक से संबंधित मामलों से जान बूझकर दूर रखा जाता है अर्थात् तटस्थ रखा जाता है। धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म को संरक्षण प्रदान करने से रोकती है।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान होता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता है।
धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में धर्म, व्यक्ति का नितांत निजी मामला है, जिसमे राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि विभिन्न धर्मों की मूल धारणाओं में आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।
निम्न बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता की भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है -
- पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता जहाँ धर्म एवं राज्य के बीच पूर्णत: अलगाव पर आधारित है, वहीं भारतीय संदर्भ में यह अंतर-धार्मिक समानता पर आधारित है।
- पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का पूर्णत: नकारात्मक एवं अलगाववादी स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, वहीं भारत में यह समग्र रूप से सभी धर्मों का सम्मान करने की संवैधानिक मान्यता पर आधारित है।
- गौरतलब है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने अंतःधार्मिक और अंतर-धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केंद्रित किया है। इसने हिंदुओं के अंदर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अंदर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किये जा सकने वाले खतरों का विरोध किया है, जो इसे पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से भिन्न बनाती है।
- यदि पश्चिम में कोई धार्मिक संस्था किसी समुदाय या महिला के लिये कोई निर्देश देती है तो सरकार और न्यायालय उस मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। जबकि भारत में मंदिरों, मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश जैसे मुद्दों पर राज्य और न्यायालय दखल दे सकते हैं।
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी होती है और अनुकूलता भी, जो पश्चिम में देखने को नहीं मिलती है। उदाहरण के लिये भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है, वहीं सरकार ने बाल विवाह के उन्मूलन हेतु अनेक कानून भी बनाए हैं।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता की आलोचना के बिंदु-
- कुछ आलोचकों का तर्क है कि धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी है, लेकिन भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है। इसमें सभी धर्मों को उचित सम्मान दिया गया है। उल्लेखनीय है कि धर्म निरपेक्षता संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व का विरोध तो करती है लेकिन यह धर्म विरोधी होने का पर्याय नहीं है।
- धर्म निरपेक्षता के विषय में यह भी कहा जाता है कि यह पश्चिम से आयातित है, अर्थात इसाईयत से प्रेरित है, लेकिन यह सही आलोचना नहीं है। दरअसल भारत में धर्मनिरपेक्षता को प्राचीन काल से ही अपनी एक विशिष्ट पहचान रही है, यह कहीं से आयातित नहीं बल्कि मौलिक है।
- यह आरोप लगाया जाता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा संचालित होती है। अल्पसंख्यकों को शिकायत है कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। इसके अलावा आलोचकों द्वारा एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि धर्मनिरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है।
- यूनिफॉर्म सिविल कोड धर्मनिरपेक्षता के समक्ष एक अन्य चुनौती पेश कर रही है दरअसल, यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता आज तक बहाल नहीं हो पाई है और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के तौर पर यह देश की सबसे बड़ी चुनौती है।
निष्कर्षतः धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग है अत: सरकारों को चाहिये कि वे इसका संरक्षण सुनिश्चित करें।