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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    भारत जैसे विविधता से पूर्ण समाजों को अनेक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है और असहिष्णुता ऐसी ही एक गंभीर चुनौती है। असहिष्णुता से समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की चर्चा करते हुए बताएं कि भारतीय समाज किस प्रकार इसे समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

    18 Sep, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण-

    • भूमिका

    • असहिष्णुता क्या है?

    • दुष्प्रभाव

    • भारतीय समाज इसे कम करने में किस प्रकार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है?

    • निष्कर्ष।

    असहिष्णुता यानी एक पक्ष द्वारा अपने से भिन्न पक्षों के विचार सुने या समझे बिना ही न सिर्फ उन्हें खारिज़ करना, बल्कि उनकी उपस्थिति को सहन करने से भी इनकार कर देना। समाज सिर्फ एकसमान विचारों एवं रुचियों वाले व्यक्तियों से ही मिलकर नहीं बनता है, बल्कि उसमें विचार, खान-पान, रहन-सहन एवं व्यवहार में विविधता वाले लोगों का समायोजन होता है। यह विविधता समाज की समस्या नहीं अपितु सैकड़ों वर्षों की गौरवमयी विकास यात्रा का जीवंत दस्तावेज़ होती है, जिसमें परस्पर भिन्न सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के बीच तमाम मतभेदों के बावजूद सह-अस्तित्व की परंपरा पनपती है और अन्तर-सांस्कृतिक मेलजोल से समाज और भी समृद्ध बनता है।

    अगर हम असहिष्णुता के उद्भव के पीछे के कारणों की विवेचना करें तो पाएंगे कि किसी भी समाज में विविध प्रकार के ‘शक्ति केन्द्रों’ (विभिन्न संस्थाओं, संगठनों एवं राजनीतिक दलों) का अस्तित्व इसका मूल होता है।

    दुष्प्रभाव-

    • असहिष्णुता केवल समाज के ताने-बाने को ही छिन्न-भिन्न नहीं करती है, बल्कि इसका राष्ट्र की अर्थव्यवस्था, उसके विकास एवं अंतर्राष्ट्रीय छवि पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आज वैश्वीकरण के युग में अंतर्राष्ट्रीय वित्त एवं व्यापार व्यवस्था में किसी भी देश की छवि का बहुत महत्त्व है।
    • बढ़ती असहिष्णुता राष्ट्र के अंदर चल रहे राजनीतिक विमर्श में भी भटकाव पैदा करती है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि भारत जैसे विकासशील राष्ट्र में जहाँ गरीबी, बढ़ती जनसंख्या और भूख इत्यादि राष्ट्रीय चिंता एवं चर्चा के विषय होने चाहियें, वहाँ खान-पान के तरीके राजकीय चुनाव का प्रमुख मुद्दा बनकर उभर रहे हैं। इससे भी दीर्घकाल में राष्ट्र की विकास यात्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
    • असहिष्णुता की मनोवैज्ञानिक विवेचना यह दर्शाती है कि यह मुख्यतः अनजान कारकों एवं स्थितियों के प्रति संदेह से भरे रवैये से उपजती है। ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति किसी भी समाज के लिये स्वस्थ मनोदशा का प्रतीक नहीं हो सकती। साथ ही, परस्पर सद्भाव एवं सम्मान के स्थान पर प्रतियोगिता तथा द्वेष से संचालित समाज अंततः बिखराव की तरफ बढ़ने को अभिशप्त होता है। फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को अक्षुण्ण रखने के लिये भी असहिष्णुता के स्तर को नियंत्रण में रखना बहुत आवश्यक है।

    समाज की भूमिका-

    बढ़ती असहिष्णुता से निपटने या उसकी रोकथाम के लिये पूरे समाज की सम्मिलित ऊर्जा को कार्य करना होता है। इसके अभाव में समाज के बिखराव या फिर अधिनायकवादी हो जाने का खतरा मंडराता रहता है। इस प्रयास में बुद्धिजीवी वर्ग, राजनीतिक वर्ग, आम लोगों एवं पत्रकारिता सभी पर महत्त्वपूर्ण दायित्व होते हैं। बुद्धिजीवी वर्ग के अंतर्गत आने वाले इतिहासकारों, लेखकों एवं कलाकारों को समझना होगा कि असहिष्णुता का विरोध चयनात्मक नहीं हो सकता।

    राजनीतिज्ञों को भी परिपक्वता का परिचय देते हुए असहिष्णुता जैसे मुद्दे पर प्रतिस्पर्द्धी राजनीति से ऊपर उठकर और एक मंच पर आकर असहिष्णुता का विरोध करना होगा। यह कोई दिवास्वप्न नहीं है अपितु एक स्वस्थ लोकतंत्र की सहज संभावना है जिसमें जनता के लिये और जनता के द्वारा ही राजनीति का निर्माण होता है। आम नागरिकों को चाहिये कि वे असहिष्णुता पर आधारित राजनीति करने वालों को नकार दें ताकि एक बेहतर समाज का स्वप्न असहिष्णुता की भेंट न चढ़ जाए।

    निष्कर्षतः भारतीय संस्कृति की आत्मा में वाद-विवाद एवं संवाद की संस्कृति रची-बसी है। ऐसे में, आपस में एक-दूसरे के प्रति असहिष्णुता दिखाना न तो इस ज़मीन की संस्कृति की रवायत है और न ही इसके इतिहास का एक दस्तूर। तो समय की मांग यही है कि समाज में सहिष्णुता के साथ विविधता बरकरार रहे।

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