‘भक्ति और सूफी आंदोलनों ने एक ही सामाजिक प्रयोजन की पूर्ति की थी’, विवेचना कीजिये? (250 शब्द )
28 Aug, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहास
हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • उदाहरण • निष्कर्ष |
भक्ति का अर्थ मोक्ष प्राप्ति के लिये ईश्वर के समक्ष आत्म-समर्पण या भौतिकवाद के विरुद्ध हृदय की प्रतिक्रिया एवं प्रेम से ओत-प्रोत दिव्य उपासना है। दूसरी ओर सूफी मत इस्लाम धर्म में उदार, रहस्यवादी, संश्लेषणात्मक तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करने वाली विचारधारा थी जो धीरे-धीरे आध्यात्मिक स्वरूप में परिवर्तित होती चली गई। दोनों आंदोलनों ने समय की नज़ाकत को समझते हुए सामाजिक प्रयोजनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भक्ति आंदोलन का इतिहास कई चरणों में बँटा हुआ है। प्रारंभिक चरण में यह धार्मिक आंदोलन ही रहा जिसका उद्देश्य हिंदी धर्म के सिद्धांतों की व्याख्या करना था यह आंदोलन अगले चरण में धर्म सुधार का स्वरूप ग्रहण करता चला गया तो वहीं तीसरे चरण में यह आंदोलन समन्वयवादी चिंतक के रूप में उभर कर सामने आया जिसने हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच एक परंपरा का विकास किया तथा रूढ़िवादी एवं कट्टरपंथी विचारों के विपरीत एक उदारवादी एवं सहिष्णु विचारधारा का विकास किया।
सूफी आंदोलन के प्रारंभिक चरण में इसका आधार इस्लाम के उपदेशों में निहित था। इस आंदोलन में नए विचारों की उत्पत्ति तब हुई जब इस्लामी साम्राज्य के प्रसार के साथ नए विचारों तक अलग धर्मों के साथ इसका संपर्क बढ़ा। इसके बाद सूफी मत की व्याख्या दो तरीके से की जाने लगी। प्रथम मत ‘शरियत’ के अनुसार व्याख्या करता था तो दूसरा ‘तरीकत’ के अनुसार। तरीकत एक उदारवादी व्याख्या थी जिसमें सूफियों का गहरा विश्वास था, इसी के साथ सूफी आंदोलन आगे बढ़ता रहा।
भक्ति आंदोलन मूलतः एक सुधारवादी आंदोलन था, भारत में जब इस्लाम धर्म का प्रसार तीव्र गति से हो रहा था और उस दौरान शासक एवं शासित के बीच धार्मिक भिन्नता थी। अतः नई परिस्थितियों में हिंदू धर्म को युग की आवश्यकता के अनुसार बदलना या संशोधित करना आवश्यक था जिससे व्यावहारिक समाज का निर्माण हो सके तथा हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित की जा सके साथ ही सौहार्दपूर्ण संबंधों का सृजन हो सके।
भक्ति आंदोलन द्वारा हिंदू समाज में जब जटिलता के स्थान पर सरलता का काम किया जा रहा था उसी समय सूफी आंदोलन द्वारा सामाजिक समन्वय का प्रयास किया जा रहा था जिसमें दोनों संप्रदायों के बीच सामाजिक समता स्थापित हो सके। भक्ति आंदोलन ने हिंदू एवं मुसलमान दोनों पक्षों की दुर्बलताओं को उजागर किया। साथ ही समन्वयवादी तथा स्पष्ट दृष्टिकोण प्रसारित किया जिसमें दोनों के बीच भेदभाव को नकार दिया गया तथा मानव की समानता पर बल दिया। इससे सामान्य जनता प्रभावित हुई और कई मुसलमान हिंदू संतों के भक्त तक बन गए इसी के साथ राम-रहीम एक है की अवधारणा को बल मिला, साथ ही हिंदू धर्म में इस्लाम की एकेश्वरवादी परंपरा का समन्वय होता दिखाई दिया।
धार्मिक उदारता के संदर्भ में सूफी आंदोलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही जिससे शासक वर्ग के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आया। सूफी आंदोलन ने सभी मनुष्यों की समानता पर बल दिया तथा इसी के अनुरूप सामाजिक व्यवहार भी किया जिसके कारण सूफी संतों की खानकाहों में हिंदुओं का आना जाना बढ़ गया जहाँ धर्म एवं संप्रदाय के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता था। आगे चलकर अकबर जैसे शासक ने इसी सहिष्णुता को अपनी धार्मिक नीति का आधार बनाया।
सूफी आंदोलन ने भक्ति आंदोलन की तरह मुस्लिम समाज में भी सुधार का कार्य किया तथा नैतिक आचरण पर बल दिया और अपने समाज में व्याप्त मद्यपान, वैश्यावृत्ति जैसी बुराइयों के प्रति नई चेतना जगाने का कार्य किया। उन्होंने सांसारिक आकर्षण की निंदा करते हुए समाज सुधार का कार्य किया।
भक्ति एवं सूफी आंदोलनों द्वारा भले ही सामाजिक प्रयोजनों के लिये समान प्रयास किये गए किंतु समाज का एक बड़ा वर्ग दोनों ओर से शासक-शासित के बीच भिन्नता को अंतरमन में छुपाए था उनकी अभिव्यक्तियों में भी कहीं-न-कहीं वह असंतोष और रूदन प्रकट हो जाता था जिसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।
निष्कर्षतः यह कह सकते है कि भक्ति और सूफी आंदोलनों का महत्त्व इस बात में है कि आम जनता अपनी आशाओं और प्रेरणाओं को समझ सकती थी और यह उनके लिये आपसी सहमति से समन्वय कितना आवश्यक था जो उनके विश्वासों से जुड़ा था। अतः इन सबके बावजूद भक्ति-सूफी आंदोलनों ने सामाजिक समन्वय का जो प्रयास किया वह उसमें सफल भी रहा।