COVID-19 के कारण उपजी हुई परिस्थितियों के बाद वैश्विक स्तर पर देखा गया कि 'आधुनिक बीमारियों के इलाज में आयुर्वेद के बढ़ते महत्त्व को देखते हुए अब यह अधिक सक्रिय रूप से स्वास्थ्य और चिकित्सा देखभाल प्रणाली में प्रतिभाग करने के लिये तत्पर है। किन्तु विभिन्न अवरोधों के कारण यह अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में सफल नहीं हो पा रही।'टिप्पणी करें।
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भूमिका
- महत्त्व
- चुनौतियां
- भूमिका
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प्राचीन चिकित्सा प्रणाली में बीमारियों के इलाज और एक स्वस्थ जीवन शैली का नेतृत्व करने के सर्वोत्तम तरीकों में आयुर्वेद को उच्च स्थान प्राप्त था। आयुर्वेद प्राचीन भारतीय प्राकृतिक और समग्र वैद्य-शास्त्र चिकित्सा पद्धति है। संस्कृत भाषा में आयुर्वेद का अर्थ है ‘जीवन का विज्ञान’ (संस्कृत मे मूल शब्द आयुर का अर्थ होता है ‘दीर्घ आयु’ या आयु और वेद का अर्थ हैं ‘विज्ञान।आयुर्वेद तन, मन और आत्मा के बीच संतुलन स्थापित कर व्यक्ति के स्वास्थ्य में सुधार करता है। आयुर्वेद में न केवल उपचार होता है बल्कि यह जीवन जीने का ऐसा तरीका सिखाता है, जिससे जीवन लंबा और खुशहाल हो जाता है।
आयुर्वेद के अनुसार व्यक्ति के शरीर में वात, पित्त और कफ जैसे तीनों मूल तत्त्वों के संतुलन से कोई भी बीमारी नहीं हो सकती, परन्तु यदि इनका संतुलन बिगड़ता है, तो बीमारी शरीर पर हावी होने लगती है। अतः आयुर्वेद में इन्हीं तीनों तत्त्वों के मध्य संतुलन स्थापित किया जाता है। इसके अतिरिक्त आयुर्वेद में रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने पर भी बल दिया जाता है, ताकि व्यक्ति सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो।
आयुर्वेद से संबंधित चुनौतियाँ-
- विषम परिस्थितियों में अप्रभावी उपचार: गंभीर संक्रमण और शल्य चिकित्सा सहित अन्य आपात स्थितियों में आयुर्वेद की न्यून प्रभावकारिता और सार्थक चिकित्सीय अनुसंधान की कमी आयुर्वेद की सार्वभौमिक स्वीकृति को सीमित कर देती है।
- आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति अत्यधिक जटिल व निषेधात्मक है।
- आयुर्वेदिक दवाओं की कार्यप्रणाली काफी धीमी है। आयुर्वेदिक दवाओं की प्रभावकारिता का पूर्वानुमान करना कठिन कार्य है।
- एकरूपता का अभाव: आयुर्वेद में चिकित्सा पद्धतियाँ एक समान नहीं हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि इसमें इस्तेमाल होने वाले औषधीय पौधे भौगोलिक जलवायु और स्थानीय कृषि प्रथाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं।
- आयुर्वेद के विपरीत आधुनिक चिकित्सा पद्धति में, रोगों को वर्गीकृत किया जाता है और पूर्व निर्धारित मानदंडों के अनुसार इलाज किया जाता है।
- आयुर्वेदिक फर्मों द्वारा भ्रामक प्रचार: आयुर्वेदिक फार्मा उद्योग ने दावा किया कि इसकी निर्माण पद्धतियाँ शास्त्रीय आयुर्वेद ग्रंथों के अनुरूप थी।
- आयुर्वेदिक दवाओं की बेहतर बाजार हिस्सेदारी के लिये, दवा कंपनियों ने पर्याप्त वैज्ञानिक आधार के बिना अपने आयुर्वेदिक उत्पादों के बारे में कई औषधीय दावों को प्रचारित किया।
- मान्यता का अभाव: विभिन्न देशों में आयुर्वेद को चिकित्सा पद्धति के रूप में मान्यता नहीं प्राप्त हो पाई है, हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में रूचि लेने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है।
- अधिकांश देशों ने आयुर्वेद को चिकित्सा के रूप में आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं दी है और उन्होंने आयुर्वेदिक दवाओं के उपयोग पर कई प्रतिबंध भी लगा रखे हैं।
- गहन अध्ययन की कमी: वर्ष 2004 में एक प्रमुख अमेरिकी जर्नल ने अमेरिका में बेची जाने वाली कुछ आयुर्वेदिक दवाओं में भारी धातुओं (आर्सेनिक, मरकरी, लेड) के अतिशय प्रयोग पर चिंता व्यक्त की। भारी धातुओं का अतिशय प्रयोग स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है।
- इस जर्नल के प्रकाशित होने के बाद दुनिया भर में आयुर्वेदिक दवाओं की निंदा हुई और सरकार ने आयुर्वेदिक दवाओं में भारी धातुओं का परीक्षण अनिवार्य कर दिया और आयुर्वेद दवा कंपनियों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों का पालन करने के लिये कहा गया।
- आयुर्वेद में उप-मानक अनुसंधान: पिछले पाँच दशकों में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में अनुसंधान मुख्य रूप से अन्य चिकित्सा प्रणालियों में उपयोग की जाने वाली सामान्य प्रक्रियाओं के अनुसरण तक ही सीमित था।
- प्रायः यह पाया गया कि आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में अध्ययन के तरीके और डेटा के निर्माण व गुणवत्ता का मानकीकरण निम्न स्तर का था।
किंतु उपरोक्त चुनौतियों के बावजूद रिवर्स औषध विज्ञान अनुसंधान, केरल मॉडल के रूप में कई सफल प्रयोगों को भी देखा जा सकता है। इस महामारी ने हमें यह अवसर भी प्रदान किया है कि आयुर्वेद की पुनर्प्रतिष्ठा कर इसके प्राचीन गौरव को पुनर्स्थापित कर न सिर्फ़ भारत अपितु विश्व को इसके लाभों से परिचित कराएं।