लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण से क्या तात्पर्य है। पंचायतों के संबंध में गांधी दर्शन जी के दर्शन की विवेचना कीजिए।
17 Aug, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था
हल करने का दृष्टिकोण:
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लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का अर्थ है कि शासन-सत्ता को एक स्थान पर केंद्रित करने के बजाय उसे स्थानीय स्तरों पर विभाजित किया जाए, ताकि आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित हो सके और वह अपने हितों व आवश्यकताओं के अनुरूप शासन-संचालन में अपना योगदान दे सके।
स्वतंत्रता के पश्चात् पंचायती राज की स्थापना लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की अवधारणा को साकार करने के लिये उठाए गए महत्त्वपूर्ण कदमों में से एक थी। वर्ष 1993 में संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता मिली थी। इसका उद्देश्य देश की करीब ढाई लाख पंचायतों को अधिक अधिकार प्रदान कर उन्हें सशक्त बनाना था और यह उम्मीद थी कि ग्राम पंचायतें स्थानीय ज़रुरतों के अनुसार योजनाएँ बनाएंगी और उन्हें लागू करेंगी।
पंचायतों के संबंध में गांधी जी के दर्शन के प्रमुख बिंदु-
गांधी अपने को ग्रामवासी ही मानते थे और गाँव में ही बस गये थे। गाँव की जरुरतें पूरी करने के लिये उन्होंने अनेक संस्थायें कायम की थीं और ग्रामवासियों की शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक स्थिति सुधारने का भरसक प्रयत्न किया।
उनका दृढ़ विश्वास था कि गाँवों की स्थिति में सुधार करके ही देश को सभी दृष्टि से अपराजेय बनाया जा सकता है। ब्रिटिश सरकार द्वारा गाँवों को पराश्रित बनाने का जो षड्यंत्र किया गया था उसे समझकर ही वे ग्रामोत्थान को सब रोगों की दवा मानते थे। इसलिये संविधान में अनुच्छेद-40 के अंतर्गत गांधी जी की कल्पना के अनुसार ही ग्राम पंचायतों के संगठन की व्यवस्था की गई।
गांधी जी का मानना था कि ग्राम पंचायतों को प्रभावशील होने में तथा प्राचीन गौरव के अनुकूल होने में कुछ समय अवश्य लगेगा। यदि प्रारंभ में ही उनके हाथों में दण्डकारी शक्ति सौंप दी गई तो उसका अनुकूल प्रभाव पडऩेे के स्थान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा इसलिये ग्राम पंचायतों को प्रारंभ में ही ऐसे अधिकार देने में सतर्कता आवश्यक है, जिसके कारण उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह न लगे।
प्रारम्भ में यह आवश्यक है कि पंचायत को जुर्माना करने या किसी का सामाजिक बहिष्कार करने की सत्ता न दी जाए। गाँवों में सामाजिक बहिष्कार अज्ञानी या अविवेकी लोगों के हाथ में एक खतरनाक हथियार सिद्ध हुआ है। जुर्माना करने का अधिकार भी हानिकारक साबित हो सकता है और अपने उद्देश्य को नष्ट कर सकता है। गांधी जी के इस विचार का तात्पर्य पंचायत को अधिकार विहीन बनाना नहीं बल्कि अधिकारों का दंड देने के रूप में संयमित प्रयोग किये जाने से था।
गांधी जी पंचायत को अधिकार भोगने वाली संस्था न बनाकर सदभाव जागृत करने वाली रचनात्मक संस्था के रूप में विकसित करना चाहते थे। उनका विश्वास था कि यह संस्था गाँव में सुधार का वातावरण पैदा कर सकती है। गांधी जी का यह मानना था कि असली लोकतंत्र गाँवों में बसता है।