उत्तर मौर्यकाल में प्रदेश-पारीय एवं महाद्वीप-पारीय व्यापार का भारत के सामाजिक और प्राकृतिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा? (250 शब्द )
14 Aug, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास
हल करने का दृष्टिकोण:भूमिका |
उत्तर : मौर्योत्तर काल व्यापार वाणिज्य की पराकाष्ठा का काल माना जाता है, इस समय कृषि विकास को प्रोत्साहन मिलने के साथ ही विभिन्न शिल्पों के विकास तथा आंतरिक एवं बाह्य व्यापार को भी प्रोत्साहन मिला। व्यापारिक प्रोत्साहन के साथ अर्थव्यवस्था की बहुआयामी गतिविधियों को बल मिला। बाह्य व्यापार के साथ विभिन्न विदेशी समाज के मेल-जोल ने समग्र सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन की नवीन दिशा को विकसित किया।
मौर्योत्तर काल में कृषि विकास के परिणामस्वरूप एक समृद्ध वर्ग अस्तित्व में आया जिसने बहुमूल्य वस्तुओं की मांग को बढ़ा दिया। इसी के साथ कृषि में अधिशेष उत्पादन के परिणामस्वरूप अनाज के व्यापार को भी प्रोत्साहन मिला क्योंकि नगरीय क्षेत्रों में अनाज की व्यापक मांग थी।
मौर्योत्तर काल में रोमन साम्राज्य एवं शक साम्राज्य के अस्तित्त्व में आने के साथ विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन मिला, दूसरे भारत ने पश्चिमी रोमन साम्राज्य एवं पूर्वी शक साम्राज्य के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई। कुषाण शासकों के अंतर्गत रेशम मार्ग का एक भाग भारत के नियंत्रण में था जिसने भारतीय व्यापार को और अधिक बढ़ावा दिया।
रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार भारत के लिये अत्यंत लाभदायक रहा क्योंकि इसके फलस्वरूप भारत में बड़ी मात्रा में सोना, चाँदी आने लगा। इस काल में भारत के व्यापारिक सहयोगी रोमन साम्राज्य, पश्चिम एशियाई क्षेत्र, मध्य एशियाई क्षेत्र, चीन तथा दक्षिण-पूर्ण एशियाई क्षेत्र थे। भारत एवं रोमन साम्राज्य के बीच व्यापार से रोम को जो आर्थिक एवं नैतिक घाटा हो रहा था उस विषय पर रोमन सीनेट में चिंता भी व्यक्त की गई थी।
मौर्योत्तर काल में व्यापारिक मार्गों का विकास उत्तरापथ एवं दक्षिणापथ के रूप में हो चुका था। उत्तरापथ इस काल में मध्य एशिया से सिल्क मार्ग से जुड़ जाता था और चीन से आरंभ होकर बैक्ट्रिया से इसकी एक शाखा तक्षशिला की ओर जाती थी। इस समय के विभिन्न बंदरगाहों जैसे- भड़ौच, सोपारा, बारवेरिकम, मुजरिस आदि का भी उल्लेख मिलता है जिनसे विभिन्न देशों के साथ व्यापार का विकास हुआ। इन्होंने भारत में व्यापारिक एकीकरण की स्थापना की।
मौर्योत्तर काल में आंतरिक एवं बाह्य व्यापार के साथ वैश्यों एवं शूद्रों की स्थिति में भी परिवर्तन आया। व्यापार एवं उद्योगों के विकास के साथ नगरीकरण की प्रगति से वैश्यों की आर्थिक संपन्नता और बढ़ गई। परिणामस्वरूप समाज में शिल्पियों एवं कारीगरों के रूप में शूद्रों का महत्त्व बढ़ गया जो धीरे-धीरे वैश्यों के समकक्ष आने लगे।
मौर्योत्तर काल में एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण उभरकर सामने आया जिसमें निम्न वर्ण के लोगों ने उच्च वर्ण के विरुद्ध विद्रोह कर दिया क्योंकि वह आर्थिक समानता के कारण सामाजिक समानता का अधिकार चाहते थे परिणामस्वरूप वैश्यों ने कर देने से मना कर दिया और शूद्रों ने सेवा करने से। इस स्थिति से निपटने के लिये ब्राह्मणों ने शस्त्र धारण करना तथा राज्य करना धर्म सम्मत माना और ब्राह्मणों को भूमि अनुदान की परंपरा को शुरू किया गया तथा उच्च वर्णों की एकता पर बल दिया गया। इस प्रकार पुनः धार्मिक जटिलताओं को स्थापित किये जाने के प्रयास किये जाने लगे।
मौर्योत्तर काल में हुए सामाजिक परिवर्तनों के कारण बौद्ध धर्म को स्वदेशी समर्थन मुख्य रूप से वणिक समाज द्वारा मिला। इस काल के कई स्तूपों एवं विहारों के निर्माण का श्रेय व्यापारियों की दानशीलता को ही जाता है। व्यापार के माध्यम से बौद्ध धर्म पश्चिमी और मध्य एशिया, चीन तथा दक्षिण पूर्वी एशिया में पहुँचा। बौद्ध धर्म ने व्यापार वाणिज्य के प्रश्रय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा वैदिक धर्म में हीनता के बोध के कारण निम्न वर्ग का झुकाव भी बौद्ध धर्म की ओर बढ़ता चला गया।
विदेशी व्यापार के कारण भारत में विभिन्न मूर्ति कला की शैलियों का आर्विभाव हुआ जिसे गांधार कला एवं मथुरा कला शैली के रूप में देखा गया तथा धनी व्यापारियों द्वारा स्तूप एवं गुहा मंदिर जिन्हें चैत्यग्रह कहते हैं, का निर्माण करवाया गया। साथ ही कई स्थानों पर बौद्ध संघों का भी निर्माण कराया गया।
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि मौर्योत्तर काल में आंतरिक एवं बाह्य व्यापार ने भारतीय अर्थव्यवस्था को उच्च आयाम प्रदान किया जिसके कारण सामाजिक उन्नत्ति एवं नगरीकरण की पराकाष्ठा स्थापित हुई, इसमें सामाजिक संघर्ष ने निम्न वर्ग की महत्त्वाकांक्षा को नवीन दिशा दी। इसने आर्थिक श्रेष्ठता के साथ सामाजिक श्रेष्ठता को नया आयाम दिया जो आज के आधुनिक समाज में परिलक्षित होता है। इसी के साथ-साथ सांस्कृतिक विकास को भी बढ़ावा मिला।