दलित विमर्श के परिप्रेक्ष्य में गोदान का मूल्यांकन करें।
11 Aug, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • गोदान में दलित विमर्श के बिंदु • निष्कर्ष |
कोई भी अच्छी साहित्यिक कृति कालबद्ध नहीं होती बल्कि काल परिवर्तन के साथ नए तरीके से अर्थवान होती चलती है। जैसे-जैसे समाज का दृष्टिकोण बदलता है वैसे-वैसे हर ऐतिहासिक रचना का पुनर्मूल्यांकन उस नई विचार दृष्टि के आलोक में होता है। नारी विमर्श और दलित विमर्श वर्ष 1960 के बाद तेज़ी से साहित्य में उभरे हैं, जिन्होंने साहित्य के संपूर्ण इतिहास का पुनर्लेख अपने नज़रिए से करने की कोशिश की है। ऐसे में यह लाज़मी है कि गोदान को भी इन विमर्शों के नज़रिए से पुनर्मूल्यांकन का विषय बनाया जाए।
गोदान में दलित विमर्श के बिंदु
दलित विमर्श के समर्थकों ने प्रेमचंद्र को कटघरे में खड़ा किया है क्योंकि उन्हें लगता है कि प्रेमचंद जातिवादी चेतना से मुक्त नहीं थे। 'रंगभूमि' और 'कफ़न' में उनका यह पक्ष प्रबल रूप से प्रस्तुत हुआ है। गोदान भी इसका अपवाद नहीं है गोदान में कहीं-कहीं जातीय शब्दों का प्रयोग इस प्रकार से किया गया है कि जाति अंतराल साफ नज़र आता है। उदाहरणार्थ- रूपा एक स्थान पर सोना को कुछ इस प्रकार चिढ़ाती हैं
"रूपा ने उंगली मटका कर कहा- ए राम, सोना चमार- ए राम सोना चमार।"
इसी प्रकार पंडित दातादिन निम्न जातियों के प्रति कुछ इस प्रकार जहर उगलते हुए नजर आते हैं,
"नीच जात जहां पेट भर रोटी खाई और टेढ़े चले, इसी से तो सास्तरों में कहा है नीच जात लतियाए अच्छा।"
वस्तुतः प्रेमचंद को इन तथ्यों के आधार पर जातिवादी कहना बेहद गलत होगा। पंडित दातादिन एक जातिवादी व्यक्ति हैं इसलिए उसके मुँह से ऐसी बात कहलवाना कथानक योजना की दृष्टि से स्वाभाविक है। रूपा के माध्यम से यह कथन इसलिए कहलाया गया है ताकि वह दिखा सके कि बच्चों के समाजीकरण की प्रक्रिया में ही उनके मन में जातिवादी पूर्वाग्रह जहर की तरह घुल जाते हैं और मासूम बच्चे जो जाति का अर्थ भी नहीं समझते जातिगत पूर्वाग्रहों से निर्मित भाषा का प्रयोग करने लगते हैं।
प्रेमचंद की जाति दृष्टि देखनी हो तो सिलिया का प्रशन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। मातादीन और सिलिया का अंतर्जातीय प्रेम प्रसंग तत्कालीन गांधीवादी परिणाम है। जिसके अंतर्गत महात्मा गांधी लगातार अंतर्जाति विवाह को प्रोत्साहन दे रहे थे।
इस प्रकार सिलिया के परिवार का विद्रोही तेवर उस समय उभरती हुई दलित चेतना का परिणाम है जो डॉ अंबेडकर आदि दलित चिंतकों के नेतृत्व में पनप रही थी।