'निर्गुण ज्ञानाश्रायी' या 'संत काव्यधारा' सामाजिक विषमताओं के प्रति विद्रोह करती है। कथन की सोदाहरण विवेचना कीजिये।
05 Aug, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में उदाहरण सहित तर्क • निष्कर्ष |
'निर्गुण ज्ञानाश्रायी' काव्यधारा या 'संत काव्यधारा' भक्तिकाल की आरंभिक काव्यधारा है। इस धारा के प्रमुख कवि कबीर दास, रैदास, दादूदयाल, मलूक दास,.रज्जब, सुंदर दास, गुरु नानक देव इत्यादि हैं। इस काव्यधारा के कवियों का साहित्य सामाजिक विषमताओं के प्रति क्रांतिकारी मानसिकता का परिचायक है। इसे निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:-
शास्त्रों का विरोध: संत कवि प्रायः निरक्षर थे। 'कागद' और 'मसि' को उन्होंने नहीं छुआ था। निम्न वर्ण और निम्न वर्ग के होने के कारण उन्हें शास्त्रों से परहेज है। क्योंकि शास्त्र ही उनके शोषण व वंचन को वैध बनाते हैं। वह शास्त्रों पर करारी चोट करते हैं क्योंकि शास्त्र लकीर का फकीर बनाते हैं और जीवन को तार्किकता से समझने की ताकत नहीं देते हैं। कबीर कहते हैं:
"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय"
माया का विरोध: नाथ परंपरा तथा शंकर के अद्वैतवाद से प्रभावित होने के कारण इनका मानना है कि माया मनुष्य में इच्छाएँ पैदा करके उसे दिग्भ्रमित कर देती हैं। माया का विरोध करते हुए वह कहते हैं:
"माया मुई न मन मुआ मरी मरी गया सरीर
आसा तृष्णा ना मुई कहि गया कबीर"
आत्मविश्वास की प्रबलता: संत कवि प्रायः निरक्षर थे। शास्त्रों ने उन पर जो प्रहार किये थे उन्हें ना पढ़ सकने के कारण उनसे प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने शंकराचार्य, वैष्णव, सूफी भक्तों और नाथ योगियों की परंपरा से अच्छे लगने वाले विचारों को ग्रहण किया इससे उनमें आत्मविश्वास की भावना आई और निडर होकर स्वानुभूतियों को व्यक्त कर सके। आत्मविश्वास से भर कर कबीर कहते हैं:-
"हम घर जारा आपना लिया मुराड़ा हाथ
अब घर जारौं तासु का जो चले हमारे साथ"
आडंबरों का विरोध: कबीर व अन्य संत कवियों ने अपने व्यंग से आडंबर फैलाने वाले मौलवियों और पंडितों दोनों पर जमकर चोट की। इनके व्यंग्य में जो पैनापन तार्किकता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। कबीर की व्यंग क्षमता की प्रशंसा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी की है। उदाहरण के लिये:
"काँकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय
ताँ चढ़ी मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।"
हिंदू संप्रदाय में आई रूढ़िगत विकृतियों का भी जमकर विरोध किया। मूर्ति पूजा, धार्मिक हिंसा, व्रत,तीर्थ इत्यादि की आलोचना की। उदाहरण के तौर पर:
"पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार
तातैं तो चक्की भली, पिस खाए संसार।"
सामाजिक असमानताओं का विरोध: सभी संतो ने सामाजिक भेदभाव के दंश को झेला था इसलिये उन्होंने सामाजिक व्यवस्था और मान्यताओं का विरोध किया। रैदास के शब्दों में:
"जाति ओछा पाती ओछा, ओछा जनम हमारा
रामराय की सेवा कीन्ही, कहि रविदास चमारा"
सांप्रदायिकता का विरोध: संत काव्यधारा का समय भारतीय समाज में हिंदू और मुसलमानों के आरंभिक सह-अस्तित्व का काल था, जिसमें दोनों संप्रदाय के लोगों के मध्य अपरिचय, अविश्वास व विरोध की भावना हावी थी। संत कबीर ने दोनों तरह की मानसिकता के लोगों को फटकारा है और सौहार्द सीखाने की कोशिश की है:
"अरे इन दोउन राह न पाई।
हिंदुन की हिंदुआई देखी तुर्कन की तुरकाई।"
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि संत काव्यधारा के कवि सामाजिक विषमताओं एवं रूढ़िवादिता को समाप्त करने तथा सामाजिक पुनर्जागरण के अग्रदूत थे।