क्या साहित्य का इतिहास फिर से लिखा जाना चाहिए? विश्लेषण कीजिये।
08 Jul, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • कथन के विपक्ष में तर्क • निष्कर्ष |
साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन का प्रश्न मूलतः इस बात से जुड़ा है इतिहास के पुनर्लेखन के क्या आधार हो सकते हैं? सावधानीपूर्वक विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि नए इतिहास लेखन की आवश्यकता तीन कारणों से ही जन्म लेती हैं; पहला - वे आधारभूत तथ्य बदल गए हो जिन पर इतिहास आधारित हो, दूसरा- इतिहास का दृष्टिकोण या बोध बदल गया हो; और तीसरा- पहले के इतिहास ग्रंथ लिखे जाने के बाद काफी लंबा कालखंड गुज़र चुका हो जिसे इतिहास में शामिल करना आवश्यक हो।
हिंदी साहित्य के इतिहास की सबसे बड़ी समस्या यह है कि पिछले हजार वर्षों से संबंधित कई तथ्य प्रमाणिक रूप से उपलब्ध नहीं हो पाते। उदाहरण के लिये, कबीर के जन्म-मृत्यु की घटनाएँ, जायसी की रचनाओं की मूल प्रतियाँ, सूरदास के अंधत्व का प्रश्न, रासो साहित्य की प्रामाणिकता तथा घनानंद की रचनाओं की पूरी सूची, जैसे कई ऐसे प्रश्न हैं जिनके निर्धारण की प्रक्रिया निरंतर चल रही है। साहित्य के इतिहास लेखन की गंभीर परंपरा का आरंभ हुए मात्र डेढ़ शताब्दी हुए हैं इसलिए लगातार ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं इतिहास की व्याख्या बदल जाती हैं।
अब दूसरा प्रश्न यह है कि इतिहास बोध में कोई परिवर्तन घटित हुआ है जो नए इतिहास लेखन की जरूरत महसूस कराता है। हम जानते हैं कि 19वीं शताब्दी से पहले तो 'भक्तमाल' और 'कालिदास हजारा' जैसी रचनाओं में इतिहास बोध नहीं के बराबर था। 19वीं शताब्दी के आरंभिक प्रयासों में इतिहास बोध बहुत सीमित रूप में जॉर्ज ग्रियर्सन जैसे विद्वानों के प्रयासों में दिखाई देता है। आचार्य शुक्ल के आगमन से साहित्य के इतिहास लेखन में गंभीर इतिहास दृष्टि दिखाई देने लगती है। यह परंपरा आचार्य द्विवेदी से होते हुए डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी तथा डॉ. बच्चन सिंह के प्रयासों तक पहुँचती है।
आचार्य शुक्ल साहित्य को "प्रत्येक देश की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब" कह कर विधेयवादी दृष्टिकोण के अंतर्गत रचना काल की परिस्थितियों, रचना के क्षण तथा रचनाकार के जातीय समूह पर तो ध्यान देते हैं किंतु उसके व्यक्तित्व या साहित्यिक परंपरा में उसके स्थान की खोज नहीं कर पाते।
आचार्य द्विवेदी "मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है" कह कर साहित्य और मनुष्य के संबंधों को तो जोड़ते हैं, रचना के साथ संपूर्ण परंपरा का संबंध भी स्थापित करते हैं किंतु रचनाकार के व्यक्तित्व एवं युगीन परिस्थितियों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते।
डॉ. रामविलास शर्मा इतिहास की समाजवादी व्याख्या करते हुए कभी-कभी वैचारिक पूर्वाग्रह के शिकार हो जाते हैं और आर्थिक विचारों को ही साहित्यकार के मूल्यांकन की प्रमुख कसौटी बना देते हैं। इस कारण हम देखते हैं कि साहित्य के इतिहास का दृष्टिकोण किसी न किसी बिंदु पर सीमित हो जाता है। इस दृष्टि से साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता महसूस होती है।
विश्लेषण का अंतिम बिंदु यह है कि क्या साहित्य के इतिहास लेखन के पूर्व प्रयासों के बाद इतना समय बीत चुका है कि नए इतिहास की आवश्यकता महसूस की जाए। इस दृष्टि से देखें तो पाते हैं कि साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा लगातार सक्रिय है। कई विद्वानों ने कई ग्रंथों में वर्तमान काल तक के हिंदी साहित्य की समीक्षा की है तथा इनके नए संस्करण लगातार अपने समय से जुड़े रहते हैं। ऐसी स्थिति में इतिहास के पुनर्लेखन के लिये यह कारण पर्याप्त नहीं होता।
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर समग्र रूप से कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास परंपरा में नवीन इतिहास या प्राचीन इतिहास के नवीकरण की आवश्यकता बनी हुई है। किसी भी परंपरा में परिपक्वता एक क्षण में नहीं आती बल्कि कई प्रयासों के परिणाम से आती है। हिंदी साहित्य को भी एक ऐसे इतिहास की आवश्यकता है, जिसमें वर्तमान समय तक के अनुसंधानों से प्रमाणित नवीन तथ्य समाविष्ट हो। जिसमें कविता या गद्य, मुक्तक या प्रबंध काव्य जैसे साहित्य खंडों के बीच इतिहासकारों के मूल्यों से पैदा होने वाले मतभेद ना हो।