‘एक लोकतंत्र को तभी सफल और जीवंत माना जाता है जब उसके नागरिक, शासन में सक्रिय भाग लेने और देश के सर्वोत्तम हित के लिये जिम्मेदारियां संभालने हेतु तैयार हों’ कथन के आलोक में मौलिक कर्त्तव्यों के महत्त्व को रेखांकित करें।
20 Jun, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था
हल करने का दृष्टिकोण : • भूमिका • मौलिक कर्त्तव्य क्या है? • इनका पालन क्यों अपेक्षित है • महत्त्व • निष्कर्ष |
नागरिकता से आशय किसी व्यक्ति की वह वैधानिक स्थिति है जिसके कारण वह राजनीतिक रूप से संगठित समाज की सदस्यता प्राप्त कर विभिन्न राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त करता है। जब व्यक्ति को राज्य की नागरिकता प्राप्त हो जाती है तो उसके बेहतर निर्वहन के लिये मौलिक अधिकारों की आवश्यकता होती है वहीं राज्य नागरिकों से अपेक्षा करता है की व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने के लिये वे मौलिक कर्त्तव्यों का भी निर्वहन करें ।
भारत में प्राचीन काल से ही भारत में कर्त्तव्यों के निर्वहन की परंपरा का महत्त्व रहा है और व्यक्ति के “कर्त्तव्यों” पर ज़ोर दिया जाता रहा है। भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि व्यक्ति को "फल की अपेक्षा के बिना अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करना चाहिये।" गांधी जी का विचार था कि “हमारे अधिकारों का सही स्रोत हमारे कर्तव्य होते हैं और यदि हम अपने कर्त्तव्योंका सही ढंग से निर्वाह करेंगे तो हमें अधिकार मांगने की आवश्यकता नहीं होगी।”
भारतीय संविधान नागरिकों के अधिकारों और कर्त्तव्यों को संतुलित करता है।भारतीय संविधान के भाग IV-A में 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से मौलिक कर्त्तव्यों को जोड़ा गया।संविधान में अनुच्छेद 51(A) के तहत वर्णित 11 मौलिक कर्तव्य हैं, जिनमें से 10 को 42वें संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया था जबकि 11वें मौलिक कर्त्तव्यों को वर्ष 2002 में 86वें संविधान संशोधन के ज़रिये संविधान में शामिल किया गया था।भारतीय संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों की अवधारणा तत्कालीन USSR के संविधान से प्रेरित है।
विशेषताएँ:
महत्त्व:
निष्कर्षतः गैर-प्रवर्तनीय होने के बावजूद भी मौलिक कर्तव्य की अवधारणा भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्रों के लिये महत्त्वपूर्ण है। निसंदेह एक लोकतंत्र को तब तक जीवंत नहीं कहा जा सकता जब तक उसके नागरिक, शासन में सक्रिय भाग लेने और देश के सर्वोत्तम हित के लिये जिम्मेदारियां संभालने हेतु तैयार न हों।