उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• सिद्ध नाथ साहित्य के साहित्य होने के विपक्ष में तर्क
• सिद्ध नाथ साहित्य के साहित्य होने के पक्ष में तर्क
• निष्कर्ष
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हिंदी साहित्य के इतिहास में यह प्रश्न सर्वाधिक विवादास्पद रहा है कि सिद्ध-नाथ साहित्य, साहित्य है या नहीं। इस प्रश्न के उठने का कारण है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे हिन्दी साहित्य में शामिल करने के पक्ष में नहीं है जबकि, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसके पक्ष में हैं।
सिद्ध-नाथ साहित्य के साहित्य होने के विपक्ष में तर्क:
- सिद्ध-नाथ साहित्य काव्यशास्त्रीय मानदंडों पर खरा नहीं उतरता है।
- आचार्य शुक्ल के अनुसार, सिद्ध-नाथ काव्यों की अंतर्वस्तु मूल रूप से धार्मिक-सांप्रदायिक है तथा इसमें अप्रतित्व दोष है।
- सिद्ध-नाथ साहित्य में बहुत से ऐसे प्रसंग मिलते हैं जहाँ सांप्रदायिकता का शुष्क प्रचार मात्र दिखता है ना कि कोई साहित्यिक तत्त्व।
- यदि परिभाषिक शब्दों को छोड़ भी दिया जाए तो इन कविताओं का एक अंश ऐसा है जो पाठक को समझ तो आता है लेकिन उसके मर्म को छू नहीं पाता है।
सिद्ध-नाथ साहित्य के साहित्य होने के पक्ष में तर्क:
- वास्तव में सिद्ध-नाथ साहित्य काव्यशास्त्रीय मानदंडों पर भले खरा न उतरे, इनमें प्रवाहमयी भाषा भले ना हो किंतु कई प्रसंगों में सामाजिक हित की भावना स्पष्ट दिखती है।
- यदि धार्मिक काव्य होने के कारण इन्हें हिन्दी साहित्य में शामिल नहीं किया जा सकता है तो इस आधार पर पूरा भक्तिकाल ही हिन्दी साहित्य से बाहर हो जाएगा जबकि जॉर्ज ग्रियर्सन ने इसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहा है।
- सुसंस्कृत भाषा कबीर की भी नहीं थी किंतु वो अपनी सामाजिक चेतना के कारण प्रखर कवि सिद्ध हुए।
- इतना ही नहीं, सिद्ध-नाथ काव्यों में कहीं-कहीं शिल्पगत सामर्थ्य भी दिखता है। कुछ जगहों पर शब्दों के चयन, भाषा के प्रवाह, प्रतीकों एवं बिंबों के कुशल प्रयोग के कारण उन्हें कवि कहने का मन होता है।
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि सिद्ध नाथ साहित्य भले ही अपनी धार्मिक मान्यताओं के प्रचार हेतु लिखे गए हों किंतु उनकी सामाजिक संवेदना, जैसे- सिद्धों द्वारा कर्मकांडों एवं बाह्य आडंबरों का विरोध, नाथों का आचरण शुचिता पर बल, के कारण इनके हिन्दी साहित्य के विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका को लेकर विद्वानों में लगभग सहमति है।